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रिष्टाधिकारः।
(७०७)
भावार्थ:-जो मनुष्य स्वर्ग से आये हुए सुवर्ण वृक्ष को देखता हो और भयंकर रूस में लटकते हुए शरीरवाले व अत्यधिक मुढे [नत ] हुए मनुष्यों को देखता हो एवं आकाश में मृत मनुष्यों को या पिशाचों को देखता हो, वह नौ महीने तक ही जाता
अष्टमासिकमरणलक्षण. अकारणात्स्थूलतरो नरोऽचिरादकारणादेव कृशः स्वयं भवेत । अकारणाद्वा प्रकृतिर्विकारिणी स जीवतीहाष्टविशिष्टमासकान् ॥ १३ ॥
भावार्थ:-जो मनुष्य कारण के विना ही अतिशीघ्र अधिक स्थूल हो जावे और कारण के बिना ही स्वयं अत्यंत कृश हो जावे, और जिसकी प्रकृति कारण के बिना ही एकदम विकृत हो जाये तो वह मनुष्य आठ महीने तक ही जीता है ॥ १३ ॥
सप्तमासिक मरण लक्षण. यदग्रतो वाप्यथवापि पृष्टतः पदं सखण्डत्वमुपति कर्दमे । सपांशुलेपः स्वयमाद्र एव वा स सप्तमासानपरं स जीवति ॥१४॥
भावार्थ:-जिस मनुष्य का पैर कीचड में रखने पर उस पाद का चिन्ह आगे से या पीछे से आधा कटा हुआ सा हो जायें, पूर्ण पाद का चिन्ह न आवे, और पैर में लगा हुआ कीचड अपने आप ही [ किसी विशिष्ट कारण के बिना ही ] गीला हो रहे तो यह सात महीने के बाद नहीं जीता है ॥ १४ ॥
पाण्मासिकमरणलक्षण उलूककाकोद्धतगृध्द्रकौशिकाविशिष्टकंगोग्रसुपिंगलादयः । शिरस्यतिक्राम्य वसंति चेदबलात् स षट्सु मासेषु विनश्यति ध्रुवम्॥१५॥
भावार्थ:-उल्लू, कौआ, उदण्ड गृध्र, कौशिक, कंगु, उग्र, पिंगल आदि पक्षी जिसके शिर को उलांधकर गये हों या जबरदस्ती शिरपर आकर बैठते हों वह यह महीने में अवश्य मरण को प्राप्त करता है ॥ १५॥
पंचमासिक मरणलक्षण. स पांशुतीयेन सुपांशुनाप्यरं शिरस्यसाक्षादवमृद्यते स्वयं । सधमनीहामिहाभिवीक्ष्यते नरो विनश्यत्यथ पंचमासतः ॥ १६ ॥
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