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रसरसायनसिध्यविकारः ।
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भावार्थ:-इस प्रकार शांतचित्त को धारण करनेवाले, इस ग्रंथ के निर्माण के द्वारा युक्तिसे धनका दान देकर अनवरत दान प्रवृत्ति के अभिलाषी अपितु तत्फल के निष्कामी महादानशील, सुशील उपादित्याचार्य मुनिनाथने योनिचिकित्साको प्रारंभ कर दीपनक्रिया पर्यंत चिकित्साक्रम को प्रतिपादन किया ॥ ५५ ॥
अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतसुशास्त्रमहाबुनिधेः । सकलपदाथेविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो ।
निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ ५६ ॥ भावार्थ:-जिस में संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्र मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बंदूके समान यह शास्त्र है । साथ में जगत्का एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ ५६ !!
इत्युग्रादित्याचार्यविरचितकल्याणकारकोत्तरे चिकित्साधिकारे
रसरसायनसिद्धाधिकारो नाम चतुर्थोऽध्यायः । आदितश्चतुर्विशतितमः परिच्छेदः ।।
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में रसरंसायनसिद्धाधिकार नामक उत्तरतंत्रामें चौथा व आदिसे चौवीसवां परिच्छेद समाप्त ।
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