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सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः ।
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अथ चतुर्विशः परिच्छेदः
मंगलाचरण प्रणम्य जिनवल्लभं त्रिभुवनेश्वरं विश्रुतं । । प्रधानधनहीनतोद्धतसुदर्पदापहम् ॥ . चिकित्सितमुदाहृतं निरवशेषमीशं नृणां ।
शरीरपरिरक्षणार्थमधिकार्थसार्थावहम् ॥ १॥ .. भावार्थ:-तीन लोकके अधिपति, प्रसिद्ध, प्रधान ऐश्वर्य [ सम्यक्त्व ] से रहित मनुष्यों के अभिमान को दूर करनेवाले, संपूर्ण चिकित्सा शास्त्रों के प्रतिपादक, सर्व भव्यप्राणियों के स्वामी, ऐसे श्री जिनेश्वर को नमस्कार कर मनुष्यों के शरीर रक्षण करने के लिये कारणभूत व आधिक अर्थसमूहसंयुक्त या उत्पन्न करनेवाले प्रकृत प्रकरण को प्रतिपादन करेगे ॥ १॥
- रसवर्णन प्रतिज्ञा शरीरपरिरक्षणादिह नृणां भवत्यायुषः । प्रवृद्धिरधिकोदतेंद्रियबलं नृणां वर्द्धते ॥. निरथर्कमथेतरस्याखिलमर्थहीनस्य चे-।
त्यतः परमलं रसस्य परिकर्म वक्ष्यामहे ॥२॥ भावार्थ:- शरीर के अच्छीतरह रक्षण करनेसे आयुष्यकी वृद्धि होती है। आयुष्य व शरीर की वृद्धि से इंद्रियो में शक्ति की वृद्धि होती है | आयुष्य व शरीर बल जिन के पास नहीं है उनके संपूर्ण ऐश्वर्यादिक व्यर्थ है । यदि ये दोनों हैं तो अन्य ऐश्वर्यादिक न हों तो भी मनुष्य सुखी होता है । इसलिये अब रस बनाने की विधि कहेंगे जिस से शरीरके रसों की वृद्धि होती है ॥२॥
रसके त्रिविध संस्कार रसो हि रसराज इत्यभिहितः स्वयं लोहसं-। . क्रपक्रमविशषतोऽनिवहमावहत्यप्यलम् ॥ रसस्य परिमर्छनं मरणमुद्रतोद्वंधनं । विधेति विधिरुच्यते त्रिविधमेव वै तत्फलम् ॥ ३ ॥
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