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(६८२)
कल्याणकारके
पारद प्रयोजन. मत्स्याक्षीगिरिकार्णका शिखिशिखाजघारुहाथीरिणी- ! त्येता निर्मुखतांभ्रमूतकसमो योगं प्रकुर्वति ताः ॥ आरामोद्भवशीतशीतलिकिकाप्यका तथा वृश्चिका-।
घेतत्त्व द्रुतमभ्रकं रसवरस्याहारमाहारयेत् ॥ ४६ ।। भावार्थ:--- मछेछी, सफेद किणिही, शिखी, कलिहारी, जंघावृक्ष, दूधियावक्ष इन के रसके साथ अभ्रक व पारेको मिलाकर उपयोग करना अनेक रोगोमें हितकर है। तथा आरामशीतला व विधुवा घास के साथ अभ्रक का प्रयोग करें तो पारद को भी अच्छी तरह जीर्ण कर देता है ॥ ४६ ॥
सिद्धरसमाहात्म्य. इत्येवं वर्णमुज्वलरसं हेम्ना च संयोजितं । वन्हौ निश्चलता तमधिकं संवासनात्यासनैः॥ तं संमूञ्छितमेव वामृतमलं संभक्ष्य मंक्ष्वक्षयं । .
वीर्यं रोगविहीनतामतिबलं प्राप्नोति मर्त्यः स्वयम् ।। ४७ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार अच्छीतरह सिद्ध रस को सुवर्णभस्म के साथ संयोजित करने से, आस्थापन व अनुवासन के प्रयोग से, वन्हि में भी निश्चलता को प्राप्त होता है। ऐसे समूर्छित अमृतको भक्षण करने से यह मनुष्य विही अक्षय शक्ति व रोगहीनता, व शरीरदाय आदि को प्राप्त करता है ॥४७॥
बद्धं सिद्धरस पलद्वयमलं संगृह्य लोहे शुभे । पात्रे न्यस्य पलं घृतं त्रिफलया सिद्धस्य तोयस्य च ॥ दत्वाति प्रणिधाय पक्वमतिमृद्रग्निमयोगाद्धरी- । तक्या द्वे च नियुज्य पूज्यतमवीर्याज्यावशेषीकृतम् ॥ ४८ ॥ पीत्वा तदघृतमुत्तमं प्रतिदिनं मोऽतिमत्तद्विपे- । न्द्रोद्यीर्यबलमतापसहितः साक्षाद्भवेत्तत्क्षणात् ॥ तत्रैकं पलमाहृतं रसवरस्यात्युग्ररोगापहं ।
स्यादेकं पलमुज्वलत्कनकबद्धं तस्य नस्यानहम् ॥ ४९ ॥ भावार्थ:----बंधन संस्कार से सिद्ध रसको एक पल प्रमाण लेकर एक अच्छे लोहे के पात्र में डालें । उस में एक पलप्रमाण त्रिफला जलसे सिद्ध घृत को मिलावें। फिर
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