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कल्याणकारके
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सिद्धांत परम्परा से लेकर आगमोक्त विधि के साथ हमने प्रतिपादन किया । यौवन के कारणभूत उन प्रयोगों को अच्छी तरह समझकर [ और विधि के अनुसार निर्माण कर दया से प्रेरित हो अच्छे गुणों से युक्त मित्रों को देना चाहिये अर्थात् प्रयोग करनाचाहिये । यहां से आगे अर्थ कारक विषय का प्रतिपादन करेंगे ॥ १०८ ॥
अंतिम कथन. इति जिनवनिर्गतसुशास्त्रामहाबुनिधेः । सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतद्वयभासुरतो ।
निसृतमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ १०९ ॥ भावार्थ:- जिस में संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोक के लिए प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिस के दो सुंदर तट हैं, ऐसें श्रीजिनेंद्र मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बंदूके समान यह शास्त्र है । साथ में जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिए ही इसका नाम कल्याणकारक है ] || १०९ ॥
इत्युग्रादित्याचार्यविरचितकल्याणकारकोत्तरे चिकित्साधिकारे सौषधकर्मव्यापच्चिकित्सितं नाम तृतीयोऽध्यायः
आदितस्त्रयोविंशः परिच्छेदः ॥
इत्यमादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में सर्वोषधकोपवद्रचिकित्साधिकार नामक
उत्तरतंत्रमें तृतीय व आदिसे तेईसवां परिच्छेद समाप्त ।
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