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सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः।
साक्षादसाध्यतर एव पुरीषगंधः ।।
स्नेहादिभिस्त्रिविधदोषकृतास्सुसाध्याः ॥ १०॥ .... भावार्थ:-उपर्युक्त रजोवार्यगत रोगो में पृथक २ वात, पित्त व कफ से उत्पन्न विकार (रोग ) साध्य होते हैं । कुणपगंधि, पूयतुल्य, पूति, ग्रंथिभूत ये सब कष्ट साध्य हैं। पुरीषगंधि रजोवीर्यविकार असाध्य हैं। वातादि पृथक् २ दोषजन्य रजोवीर्य विकार को स्नेहन स्वेदन आदि कर्मों द्वारा जीतना चाहिये ॥ १० ॥
रजोवीर्य के विकार में उत्तरबस्तिका प्रधानत्व व कुणपगंधिवीर्यचिकित्सा. ___ अत्रोत्तरप्रकटबस्तिविधानमेव कार्तवमवरदोषनिवारणं स्यात् । .. सर्पिः पिबेत् प्रवरसारतरं प्रसिद्ध शुद्धस्स्वयं कुणपविग्रथिते तु शुक्ले ॥११॥
भावार्थ:-वीर्य व रजसंबंधी. दोषों के निवारण के लिये उत्तरवस्ति का ही प्रयोग करना उचित है । क्यों कि उन रोगों को दूर करने में यह विशेषतया समर्थ है। कुणपगंध से युक्त शुक्र में वमन विरेचनादिक से विशुद्ध होकर, इस रोग को जीतनेवाला सारभूत प्रसिद्ध घृत [ शाल सारादि साधित व इ.ी प्रकार के अन्य घृत) को पीना चाहिये ॥ ११ ॥
ग्रंथिभूत व पूयनिभवायचिकित्सा. ग्रंथिप्रभूतघनपिच्छिलपाण्डुराभे शुक्रे पलाशखदिरार्जुनभस्मसिद्धम् । सर्पिःपिवेदधिकपूयनिभस्वबीजे हिंतालतालवटपाटलसाधितं यत् ॥१२॥
भावार्थ:-जो वीर्य, बहुतसी ग्रंथि [ गांठ ) योंसे युक्त हो, व घट्ट पिच्छिल (पिलपिले ) पांडुवर्ण से युक्त हो, उस में पलाश [ ढाक ] खैर, व अर्जुन (कोह ) इन के भस्म से सिद्ध घृत को पीना चाहिये । पूयनिभ(पीप के समान रहनेवाले ) वीर्य रोग में हिंताल ( ताड भेद ) ताड, बड व पाडल, इन से सिद्ध घृत को पीना चाहिये ॥१२॥
विड्गंधि व क्षीणशुक्रकी चिकित्सा. क्ड्गिन्धिनि त्रिकटुकत्रिफलाग्निमंथाभोजांबदप्रवरसिद्धघृतं तु पेयम् ।। रेतः क्षये कथितवृध्यमहाप्रयोगैः संवर्द्धयेद्रसरसायनसंविधानः ॥ १३ ॥
भावार्थ:-पुरीषगंध से संयुक्त वीर्य रोग में त्रिकटु, त्रिफला, अगेथु, कमल पुष्प, नागरमोथा, इन औषधियों से सिद्ध उत्तम घृत को पिलाना चाहिये । क्षीण शुक्र में पूर्व कथित महान् वृष्यप्रयोग और रसायन के सेवन से शुक्र को बढाना चाहिये॥१३
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