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सौषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः।
(६४१)
भावार्थ:-जो रज ( आर्तव ) मैनशिलाका द्रव, हंसपादि के पंक, खरगोश के रक्त, लाखका रस व श्रेष्ठ कुंकुमके समान (लाल) होता है एवं वस्त्र पर लगे हुए को धोने पर छूट जावें, कपडं को न रंगे उसे शुद्ध आर्तव समझना चाहिये अर्थात् ये शुद्ध आर्तव के लक्षण हैं [ ऐसे ही आर्तव से संतान की उत्पत्ति होती है ) ॥१८॥
स्त्री पुरुष व नपुंसक की उत्पत्ति. शुद्धार्तवप्रबलतः कुरुतेऽत्र कन्यां शुक्रस्य चाप्यधिकतो विदधाति पुत्रम् । तत्साम्यमाशु जनयद्धि नपुंसकत्वं कर्मप्रधानपरिणामविशेषतस्तत् ॥१९॥
भावार्थ:---- शुद्ध रजकी अविकता से शुद्धार्तव से युक्त स्त्री के शुद्धशुक्रयुक्त पुरुष के संयोग से गर्भाशय में गर्भ ठहर जाय तो कन्या की उत्पत्ति होती है । यदि वीर्य का आधिक्य हो तो पुत्र की उत्पत्ति होती है। दोनोंकी समानता हो नपुंसक का जन्म होता है। लेकिन ये सब, अपने २ पूर्वोपार्जित प्रधान भूत कमफल के अनुसार होते हैं अर्थात् स्त्री पुं-नपुंसक होने में मुख्यकारण कर्म है ॥ १९ ॥
गर्भादानविधि. शुद्धार्तवामधिक शुद्धतरात्मशुक्र ब्रह्मव्रतस्स्वयमिहाधिकमासमात्रम् । स्नातश्चतुर्थदिवसप्रभृति प्रयत्नाधायानरः स्वकथितेषु हि पुत्रकामः ॥२०॥
भावार्थ:-जिस का शुक्र शुद्ध है जिस ने स्वयं एक महिनेपर्यंत ब्रह्मचर्य धारण किया है ऐसे पुरुष शुद्धार्तववाली स्त्री के साथ [जिस ने एक मास तक ब्रह्मचर्य धारण कर रख्खा हो ] चतुर्थ स्नान से लेकर [ रजस्वला के आदि के तीन दिन छोडकर, और आदिसे दस या बारह दिन तक संतानोत्पादन के निमित्त ] प्रयत्नपूर्वक ( स्त्री को प्रेमभरी वचनों से संतुष्ट करना आदि काम शास्त्रानुसार ) संगम करें। यदि वह पुत्रो • त्पादन की इच्छा रखता हो तो, जिन दिनों मे गमन करने से पुत्र की उत्पारीि कहा
है ऐसी युग्म रात्रियों [ चौथी, छठवी आठवी दसवी रात्रि ] में स्त्रीसेवन करे । पुत्री [ लडकी ] उत्पन्न करना चाहता हो अयुग्म रात्रियों ( पांचवी, सातवीं, नौवीं रात्रि ) में स्त्री सेवन करें ॥ २० ॥
__ ऋतुकाल व सद्यागृहीतगर्भलक्षण. दृष्टार्तवं दशदिन प्रवदति तद्ज्ञाः साक्षाददृष्टमपि षोडशरात्रमाहुः । सद्यो गृहीतवरगर्भसुलक्षणत्वं ग्लानिश्रमक्तमतृषोदरसंचलस्स्यात् ॥२१॥ १ मधि ( मथि ) तेषु इति पाठातरं ।
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