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(६४.३)
कल्याणकारके
.. भावार्थ:-तिब ( रज ) दर्शन से लेकर गर्भादान विषय के विशेष जानकारों में दस दिनपर्यंत के [रात्रि ] काल को ऋतुकाल कहा है । किसी का मत है [ रात्रि ] कि रजो दर्शन न होनेपर भी ऋतुकाल हो सकता है । कोई तो रजोदर्शन से लेकर सोलह रात्रि के काल को ऋतुकाल कहते हैं । जिस स्त्री को जिस समय गर्भ ठहर गया हो उसी समय उस में ग्लानि, थकावट, क्लेश, प्यास, उदरचलन, ये लक्षण प्रकट होते हैं । (जिस से यह जाना जा सकता है कि अभी गर्भ ठहर गया) ॥२१॥
गर्भिणी चर्या. गर्भान्वितां मधुरशीतलभेषजाड्यम् मासद्वयं प्रतिदिनं नवनीतयुक्तम् । शाल्योदनं सततमभ्यवहारयेत्तां गव्यन साधुपयसाथ तृतीयमासे. ॥२२॥ दध्नैव सम्यगसकृच्च चतुर्थमासे पूज्येन गव्यपयसा खलु पंचमेऽस्मिन् । षष्ठे चतुर्थ इव मास्यथ सप्तमासे केशोद्भबश्च परिभोजय तां पयोत्रम् ॥२३॥ यष्ट्यंबुजांबुवरनिंबकदंबजंबूरंभाकपायदधिदुग्धविपकसपिः। मात्रां पिबेत्प्रतिदिनं तनुतापशांत्य मासेऽमे प्रतिविधानामिहोच्यतेऽतः॥२४
भावार्थ:..गर्भिणी को प्रथम द्वितीय मास में मधुर और शीतल औषधि (शाक फल, धान्य, दूध आदि ) व मक्खन से युक्त भात को प्रतिदिन खिलाना चाहिये। एवं तीसरे मास में उत्तम गाय के दूध के साथ चारल का भोजन कराना चाहिये । चौथे महीने में दही के साथ कई दफे भोजन कराना चाहिये । एवं पांचवें मइनि में उत्तम गाय के दूध के साथ भोजन कराना चाहिये । छठे महीने में चौथे महीने के समान दही के साथ भोजन कराना चाहिये। सातवें महीने में गर्भस्थ बालक को केशकी उत्पत्ति होती हैं। गर्भिणी को दूध के साथ अन्नका भोजन कराना चाहिये । एवं मुलेठी कमलपुए, नेत्रवाला, नीम, केला, कदंबवृक्ष की छाल, जामुन, इन के कषाय व दही, दूध से पके हुए घृतकी मात्रा (खुराक ) को प्रतिदिन शरीर के ताप को शांत होने 'के लिये पिलाना चाहिये। आठवें महीने में करने योग्य क्रियावोंको अब कहेंगे ॥ २२ ॥ २३ ॥२४॥
आस्थापयेदथ बलाविहितेन तैलेनाज्यान्वितेन दधिदुग्धविमिश्रितेन । तैलेन चाष्टमधुरौषधसाधितेन [पकं दत्तं हितं भवति चाप्यनुवासनं तु॥२५॥ १ गर्भग्रहण, या उसके योग्य काल को तुकाल कहते हैं ।
'जबतक ऋतुमती, यह संज्ञा है तब तक ही स्त्रीसेवन करे आगे यहीं । आगे के मैथुन से गर्भधारण नहीं होता है इसलिये उसे निंद्य कहा गया है ।
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