________________
सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः।
(६५७ )
भावार्थ:-धूम प्रयोग में सम्यग्योग, हीनयोग व अतियोग के जो लक्षण कहे गये हैं वही लक्षण विरेचनरस व नस्य के सम्यग्योग, हीनयोग, अतियोग के भी जानना। धूम के अतियोग से उत्पन्न उपद्रवों की जो चिकित्सा बतलाई गई है उसे नस्य के अतियोग में भी उपयोग करना चाहिये ॥ ७६॥
वणशोथ वर्णन. एवं नस्यविधिर्विशेषविहितः सर्वामयेष्वोषधान्यप्यामेति विदग्धसाधुपरिपकमायोजयेत् ॥ इत्यत्युत्तमसंहिताविनिहिता तत्रापि शांफक्रिया
मुक्तामत्र सविस्तरेण कथयाम्यल्पाक्षरैक्षिताम् ॥ ७७ ॥ भावार्थ:-इस प्रकार नस्यविधि को विस्तार के साथ निरूपण किया। समस्त रोगो में औषधियों का प्रयोग, रोग की अम पक्क विदग्ध अवस्थाओं के अनुसार करना चाहिये । ऐसा अत्युत्तम आयुर्वेदसंहिता में कहा है । अब आयुर्वेदसंहिता में जिस के सम्बंध में विस्तार के साथ कथन किया गया है ऐसे शोफ व उस की चिकित्साविधि का यहां थोडे अक्षरो में अर्थात् संक्षेप में कथन करेंगे ॥ ७७ ।।
व्रणशोथ का स्वरूप व भेद. ये चानेकविधामया स्थुरधिकं शोफाकृतिय॑जनास्तेभ्यो भिन्नविशेषलक्षणयुतस्त्वङ्मांससंबंधजः॥ . शोफस्स्याद्विषमः समः पृथुतरो वाल्पः ससंघातवान् ।
वातायैः रुधिरेण चापि निखिलैरागंतुकेनापदा ।। ७८ ॥ भागर्थः-नाना प्रकार के ग्रंथि, विद्रधि आदि रोग जो शोथ के आकृति के होते हैं उन से भिन्न और विशिष्ट लक्षणों से संयुक्त त्वचा, मांस के सम्बंध से उत्पन्न एक शोफ ( शोथ-सूजन ) नामक रोग है जो विषम सम, बडा, छोटा, व संधातस्वरूप वाला है । इस की उत्पत्ति वात, पित्त, कफ, सन्निपात, रक्त एवं आगंतुक कारण से होती है (इस लिये इस के भेद भी छह हैं ) ॥ ७८ ॥
शोथों के लक्षण. तेभ्यो दोषविशेषलक्षणगुणादोषोद्भवा शोफकाः । पित्तोभदूतवदत्र रक्तजनितः शोफातिकृष्णस्तथा ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org