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कल्याणकारके
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रक्तात्पित्तसमुद्भवोपमगुणोप्यागंतुजो लोहित
स्तेषामामविदग्धपकविलसत् सल्लक्षणं वक्ष्यते ॥ ७९॥ भावार्थ:--वात, पित्त व व.फ से उत्पन्न होने वाले शोथो में वातादि दोषों के ही लक्षण व गुण प्रकट होते हैं या पाये जाते हैं एवं सन्निपातज शोथ में तीनों दोषों के लक्षण प्रकट होते हैं । रक्तजन्य शोथ में पित्तज शोथ के समान लक्षण प्रकट होते हैं और वह अत्यंत काला होता है । आगंतुज शोथ में पित्त व रक्तज शोथ के समान लक्षण होते हैं, वह लाल होता है । अब आगे इन शोथों के आम. विदग्ध व पक्क अवस्था के लक्षणों को कहेंगे ॥ ७९ ॥
शोथ की आमावस्था के लक्षण. . दोषाणां प्रबलात्प्रति प्रतिदिनं दुर्योगयोगात्स्वयं । बाह्याभ्यंतरसक्रियाविरहितत्वाद्वा प्रशांतिं गतः ॥ योऽसौ स्यात्कठिनोऽल्परुक् स्थिरतरत्वकसाम्यवर्णान्वितो।
मंदोष्माल्पतरोऽतिशीतनितरामामाख्यशोफस्स्मृतः ॥ ८ ॥ भावार्थ:--व्रणशोथ में वातादि दोषों के प्राबल्य अत्यधिक [शोथ में कुपित दोषों का प्रभाव ज्यादा ] हो, शोथ की शांति के लिये प्रयुक्त योग [ चिकित्सा ] की विपरीतता हो अर्थात् सम्यग्योग न हो, या उस के शमनार्थ बाह्य व आभ्यंतर किसी प्रकार की चिकित्सा नहीं की गयी हो तो वह शोथ शमन न हो कर पाकाभिमुख [पकने लगता है ] होता है। [ ऐसे शोथ की आमावस्था, विदग्धावस्था, पक्कावस्था इस प्रकार तीन अवस्थायें होती हैं उन में आमशोथ का लक्षण निम्न लिखित प्रकार है। जो शोथ, कठिन, अल्पपीडायुक्त, स्थिर (जैसे के तैसा ) त्वचा ( स्वस्थत्वचा) के समान वर्ण से युक्त [ उस का रंग नहीं बदला हो] एवं कम गरम हो, तथा शोथ थोडा हो, और शीत हो तो समझना चाहिये कि यह आमशोथ है अर्थात् ये आम शोथ के लक्षण हैं॥८० ॥
विदग्धशोथ लक्षण. यश्चानेकविधोऽतिरुम्बहतरोष्मात्याकुलः सत्वरो। यश्च स्यादधिको विवर्णविकटः प्राध्मातबस्तिस्समः ॥
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१ अधिकोऽपि इति पाठांतरं
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