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सर्वोषधकर्मव्यापचिकित्साधिकारः ।
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भावार्थ:- उत्तरबस्ति देने योग्य रोगी को स्नेहन व गरम पानी से स्नान स्वेदन ] करा कर घी दूध से युक्त यवागू को पिला कर मल मूत्र का त्याग कराना चाहिये । पश्चात् घुटने के बराबर ऊंचे आसन पर जिस पर तकिया भी रक्खा गया है उखरू बैठाल कर, बस्ति [ मूत्राशय ] के ऊपर के प्रदेश को गरम तैल से मालिश करे। एवं शिश्नेंद्रिय को खींचकर घी से लिप्त पिचकारी को, शिश्न के अंदर प्रवेश करावे
और धीरे २ क्रमशः सुखपूर्वक ( रोगी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हो वैसा) पिचकारी को दबावे ॥ ३ ॥ ४ ॥
उत्तरबस्तिके द्रवका प्रमाण. स्नेहपञ्चमित एव भवेन्नृणां च । स्त्रीणां तदर्धमथमस्य तदर्धमुक्तम् ॥ कन्याजनस्य परिमाणमिह द्वयोस्या-।
दन्य द्रवं प्रसृततद्विगुणप्रमाणम् ॥ ५॥ भावार्थ:-उत्तर बस्ति का स्नैहिक और नैरूहिक इस प्रकार दो भेद है। स्नैहिक उत्तर बस्ति के स्नेह का प्रमाण पुरुषों के लिये एक पल ( चार तोले ) स्त्रियों के लिये, आधा पल [ दो तोले ] कन्या ( जिन को बारह वर्ष की उमर न हुई हो)
ओं के लिये चौथाई पल ( एक तोला ) जानना चाहिये । नैरूहिक उत्तरबस्ति के द्रव [ काथ-काढा ] का प्रमाण, स्त्री पुरुष, व कन्याओं के लिये एक प्रसृत है । यदि नियों के गर्भाशय के विशुद्धि के लिये ( गर्भाशय में ) उत्तर बस्ति का प्रयोग करना हो उसका स्नेह और काथ का प्रमाण लेना चाहिये प्रमाण पूर्वोक्तप्रमाण से द्विगुण जानना चाहिये । अर्थात् स्नेह एक पल, क्वाथ का दो प्रसृत ॥ ५ ॥
___उत्तरबस्ति प्रयोग क प्रश्चात् क्रिया. एवं प्रमाणविहितद्रवसंप्रवेशं ज्ञात्वा शनैरपहरेदथ नेत्रनालीम् । प्रत्यागतं च मुनिरीक्ष्य तथापराण्हे तंभोजयेत्पयसि यूषगणैरिहान्नम् ॥ ६॥
१ यद्यपि, प्रसृतका अर्थ दो पल है[पलाभ्यां प्रसूतिज्ञेयः प्रसृतश्च निगद्यते लेकिन यहां इस अर्थ का ग्रहण न करना चाहिये । परंतु इतना ही समझ लेना चाहिये कि रोगियों के हाथ वा अंगुलियों मूल से लेकर, हथैली भर में जितना द्रव समावे वह प्रसृत है । ग्रंथांतरा में कहा भी है। स्नेहस्य प्रसृतं चात्र स्वांगुलीमूलसीम्मतं "
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