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(६३६)
कल्याणकारके
अथ त्रयोविंशः परिच्छेदः
मंगलाचरण व प्रतिज्ञा. श्रीमजिनेंद्रमभिवंद्य सुरेंद्रवंद्यं वक्ष्यामहे कथितमुत्तरबस्तिमुद्यत् । तल्लक्षणप्रतिविधानविशेषमानाच्छुकार्तवं प्रकटदोषनिबर्हणार्थम् ॥१॥
भावार्थ:-देवेंद्र के द्वारा वंदनीय श्री भगवजिनेंद्र देव की वंदना कर शुक्र और आर्तव के दोषों को दूर करने के लिये, उत्तर बस्ति का वर्णन, उस के (नेत्रबस्ति) लक्षण, प्रयोग, विधि व प्रयोग करने योग्य द्रव का परिमाण के साथ २ कथन करंगे ॥१॥
नेत्रयस्ति का स्वरूप. यन्मालतीकुसुमतनिदर्शनेन प्रोक्तं सुनेत्रमथ बस्तिरपि प्रणीतः ॥ संक्षेपतः पुरुषयोषिदशेषदोषशुक्रावप्रतिविधानविधि प्रवक्ष्ये ॥ २॥ ..
भावार्थ:-चमेली पुप्प की डंठल के समान नेत्रबस्ति [ पिचकारी ] की आकृति बताई गई है । उस के द्वारा स्त्री पुरुषों के शुक्ल [ वीर्य ] रज संबंधी दोषों की चिकित्सा की विधि को संक्षेप से कहेंगे ॥ २ ॥
___ उत्तरबस्तिप्रयोगविधि मुस्निग्धमातुरमिहोष्णजलाभिषिक्त-। मुत्सृष्टमूत्रमलमुत्कटिकासनस्थम् ।। स्वाजानुदघ्नफलकोपरि सोपधाने । पीत्वा घृतेन पयसा सहितां यवागूम् ॥ ३॥ कृत्वोष्णतैलपरिलिप्तसुबस्तिदेश-- । माकृष्य मेहनमपीह समं च तस्य ।। नेत्रं प्रवेश्य शनकैघृतलिप्तमुद्य- ।
द्वस्ति प्रपीडय सुखं क्रमतो विदित्वा ॥४॥ १ पुरुषों के इंद्रिय व स्त्रियों के मूत्रमार्ग, व गर्भाशय में जो बस्ति का प्रयोग किया जाता है उसरबस्ति कहते हैं। यह निरूहबीस्त के उत्तर = अनंतर प्रयुक्त होता है इसलिये इसे " बस्ति ' यह नाम पड़ा है। कहा भी है "निरूहादुत्तरो यस्मात् तस्मादुत्तरसंज्ञकः
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