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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः ।
( ६३५ )
बस्ति को जो कि, नानाप्रकार के दोषों को नाश करने वाला है, विधि प्रकार अनेक वार देना चाहिये ॥ १६९ ॥
कथितवस्तिगणानिह बस्तिषु प्रवरयानगणेष्वपि केषुचित् । कुरुत निष्परिहारतया नरा । नरवरेषु निरंतरमादरात् ॥ १७० ॥
भावार्थ:- इस प्रकार कहे हुए उन योग्य, कोई २ वाइन, व नरपुंगवों के प्रति, वैद्य प्रयोग करें ॥ १०७ ॥
गुडतैलिक बस्तियों को, बस्ति के विना परिहार के हमेशा आदरपूर्वक
इत्येवं गुडतिलसंभवाख्ययोगः स्निग्धांगेष्वतिमृदु कोष्ठसुप्रधानेध्वत्यंतं मृदुषु तथाल्पदोषवर्गेष्वत्यर्थं सुखिषु च सर्वथा नियोज्यः । १७१ ।
भावार्थ : - इस प्रकार गुड तैलिक नामक बस्ति उन्ही रोगियों के प्रति प्रयोग करें जिनका शरीर स्निग्ध हो, जो मृदु कोष्ठवाले हों, राजा हों, अत्यंत कोमल हों, अल्पदोष से युक्त हों एवं अधिक सुखी हों ऐसे लोगों के लिये यह गुड तैल योग अत्यंत उपयोगी है ॥ १७१ ॥
इति जिनवक्त्रनिर्गत सुशास्त्र महांबुनिधेः । सकलपदार्थ विस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभासुरतो । निसृतमिदं हि शीकारनिभं जगदेकहितम् ॥ १७२ ॥ इत्युग्रादित्याचार्यविरचिते कल्याणकारके भेषजकर्मोपद्रवनाम द्वितीयोऽध्यायः आदितो द्वाविंशः परिच्छेदः ।
इत्युप्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में भेषजकर्मोपवद्रचिकित्साधिकार नामक उत्तरतंत्र में द्वितीय व आदिसे बाईसवां परिच्छेद समाप्त हुआ ।
१ पहिले गुडतैलिकबस्ति से लेकर जो भी बस्ति के प्रयोग का वर्णन है वे सभी गुडलिक दी भेद हैं। क्योंकि उन सब में गुड तैल पड़ते हैं ॥
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