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( ६३८ )
कल्याणकारके
भावार्थ: - इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणसे द्रवका प्रदेश करा कर धीरेसे पिचकारी की नली को बाहर निकालना चाहिये । तदनंतर द्रव के बाहर आने के बाद सायंकाल में . [ शाम ] उसे दूध व यूष गणों के साथ अन्नका भोजन कराना चाहिये ॥ ६ ॥ वस्तिका माण
इत्युक्तसद्रवयुतोत्तरवस्तिसंज्ञान्वस्तित्रिकानपि तथा चतुरोपि दद्यात् । शुक्रार्तवप्रवरभूरिविकार शांत्यै बीजद्वयप्रवररोगगणान्त्रवीमि ॥७॥
भावार्थ:--- उपर्युक्त प्रमाण के द्रवों से युक्त उत्तरबस्ति को रजो वीर्य संबंधी प्रबल - विकारों की शांति के लिये तीन या चार दफे प्रयोग करें जैसे रोगका बलाबल हो । अब रजोवीर्य सम्बंधी रोगोंका प्रतिपादन करेंगे ॥ ७ ॥
वातादि दोषदूषित रजोवीर्य के ( रोग ) लक्षण. वातादिदोषानिहतं खलु शुक्ररक्तं । ज्ञेयं स्वदोषकृतलक्षणवेदनाभिः ॥ गंधस्वरूपकुणपं बहुरक्तदोषात् । ग्रंथिप्रभूतबहुले कफवातजातम् ॥ ८ ॥ पूयो भवत्यतितरां बहलं सपूति । प्रोत्पित्तशोणितविकारकृतं तु बीजम् ॥ • स्यात्सन्निपातजनितं तु पुरीषगंध । क्षीणं क्षयादथ भवेद्वहुमैथुनाच्च ॥ ९ ॥
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भावार्थ:- वातादि दोषों से दूषित वीर्य व रज में उन्ही वातादि दोषों के लक्षण व वेदना प्रकट होते हैं । इसलिये वातादिक से दूषित रजोवीर्य को बातादि दोषों के लक्षण च वेदवाओं से पहिचानना चाहिये कि यह वातदूषित है या पित्तदूषित है आदि । रक्त से दूषित रजो वीर्य कुणप गंध [ मुर्दे के सी वास ] से युक्त होते हैं कफवात से दूषित रजोवीर्य में बहुतसी गांठे हो जाती हैं । पित्तरक्त के विकार से, रजोवीर्य दुर्गंध व [ देखने में ] पीप के सदृश हो जाते हैं । सन्निपात से रजोवीर्य मल के गंध के तुल्य, गंध से युक्त होते ह । अतिमैथुन से रजोवीर्य का क्षय होता है जिस से रजोवीर्य क्षीण जो कहलाते हैं ॥ ८ ॥ ९॥
साध्यासाध्य विचार और वातादिदोषजन्य वर्यिरोग की चिकित्सा. तेषु त्रिदोषजनिताः खलु बीजरोगाः ।
साध्यास्तथा कुणपपूय समस्त कृच्छ्राः ॥
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