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कर्मचिकित्साधिकारः।
(५७७ ) शुद्धरक्ताहरण में प्रतिक्रिया. वांतां तां कथितांबुपूरितघटे विन्यस्य संयोषयेत् । ज्ञात्वा शोणितभेदमप्यतिगति संस्थापयेदौषधैः । दशे यत्र रुजा भवेदतितरां कण्डूश्च शुद्धपदे-।
शस्था स्यादिति तां विचार्य कवणैरामोक्षयेत्तत्क्षणात् ॥ ४८ ॥ ... भावार्थ:--वमन कराने के बाद उस को पूर्वकथित जल से भरे हुए घडे में रख कर पोषण करना चाहिये । एवं इधर रक्तभेद को जान कर यदि तीव्रवेग से उस का स्राव हो रहा हो तो उसे औषधियों से बंद कर देना चाहिए। जोंकके रक्त पीते समय दंश ( कटा हुआ स्थान ) में यदि अत्यंत पीडा व खुजली चले तो समझना चाहिए कि वे शुद्धरक्त को खींच रहे हैं। जब यह निश्चय हो तो उसी समय उस के मुंह में सेंधानमक लगा कर उन को छुडाना चाहिए ॥ ४८ ॥
शोणितस्तम्भनविधि. पश्चाच्छीतजलैर्मुहुर्मुहुरिह प्रक्षाल्य रोगं क्षरेत् । क्षीरेणैव घृतेन वा चिरतरं सम्यनिषिच्य क्रमात् ॥ रक्तस्यातिमहाप्रवृत्तिविषये लाक्षाक्षमाषाढकै ।
इचूर्णः क्षोममयीभिरप्यतितरं शुष्कैस्तु संस्तभयेत् ।। ४९ ॥ . भावार्थः–तदनंतर उस पीडा के स्थान को ठण्डे जल से बार २ धोना चाहिए जिस से रोगक्षरण हो जाये । एवं क्रमशः चिरकाल तक अच्छी तरह उस पर दूध घृत का सेचन करना चाहिये । रक्त का स्राव अधिक होता हो तो लाख बहेडा, उडद, व अरहर इनके अतिशुष्कचूर्ण को जिस में रेश्मीवस्त्र का भस्म अधिकप्रमाण में मिला है उसपर डालकर रक्तस्तंभन करना चाहिये ।। ४९ ॥
शेोणितस्तम्भनापरविधिः लोधेश्शुद्धतरैसुगोमयमयैर्गोधूमधात्रीफलैः । शंखैः शुक्तिगणारिमेदतरुसपूतैस्तथा ग्रंथिभिः ॥ सज्जैरर्जुनभूर्जपादपदवत्वाग्भिश्च चूर्णीकृतै-।
राचर्य व्रणमाशु बंधनबलस्संस्तंभयेच्छोणितं ॥ ५० ॥ अर्थ---लोध्र, शुद्धगोमय, गेहूं, आमला, शंख, शुफि, अरिंमेद ( दुर्गंध युक्त खेर )इन वृक्षोंकी ग्रंथि, सर्ज वृक्ष, अर्जुन वृक्ष, भूर्जवृक्ष व उनकी छाल, इन सबको चूर्ण करें। उस व्रण पर उक्त चूर्ण को डालकर और व्रण को बांधकर रक्त का स्तम्भन करें ॥ ५० ॥
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