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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः।
(६१५)
अतीव दैर्येप्यतिदीर्घदोषत- स्तथाल्पके चाल्पनिपीडितोपमः । अतः परं बस्तिविकारलक्षणं । प्रवक्ष्यते तत्परिवर्जयेदपि ।। ९६ ॥
भावार्थ-पिचकारी बहुत लम्बी होने पर बस्ति की कर्णिका दूर होनेसे जो व्यापत्ति होती है वही इस में भी होती है । नेत्र ! पिचकारी ] छोटा हो तो धीर दबानसे जो दोष होता है वही इस में भी होता है। इस के बाद बस्ति के विकार का स्वरूप कहेंगे । ऐसी बस्तियों को बस्तिकों में प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥९६ ॥
बस्तिदोषजव्यापत्ति व उसकी चिकित्सा. तथैव बस्तो बहलेऽतरंगिक । दृढेन चांधी भवतीति वर्जयेत् (?)। सुदुर्बलः पीडित एव भिद्यते। प्रवत्यतिछिद्रयुते द्रवं द्रुतम् ॥ ९७।। अथाल्पवस्तावतिहीनत द्रवं । भवत्यतस्तापरिवर्जयोद्भषक् ।
पीडनदोषजन्य व्यापति व उसकी चिकित्सा तथातिनिष्पीडनतो द्रवद्रुतं । मुखे च नासापुटयोः प्रवर्तते ॥ ९८ ॥ तथा गृहीत्वाशु विधिविधीयतां । विरेचयत्तीक्ष्गतरैविरेचनैः। सुशीतलाम्भः परिषेचयेत्तथा । ततोऽतियत्नाइवमानयेदधः ॥ ९९ ॥ अथाल्पपीडादपवर्तते द्रवं । पुनः पुनः पीडनतोऽनिलान्वितम्।। करोति चाध्मानमतीववेदनां । ततोऽनिलघ्नं कुरु बस्तिमुत्तमम् ॥१०॥ चिरेण निष्पीडितमामयोदयं । करोति तत्तं शमथातरं द्रवम् । यथोक्तसद्भषजसिद्धसाधन- । रुपाचरेदाशु सुशांतये सदा ॥१०॥
भावार्थ:-बस्ति बहुत मोटी हो और बहुत फैली हुई हो तो दुर्बद्ध के समान दोष होता है [ औषध ठीक २ नहीं पहुंचता ] यदि बस्ति दुर्बल हो तो दबाते ही फट जाती है । बस्ति छिद्रयुक्त हो, द्रव जहां पहुंचना चाहिये वहां न पहुंच कर शीघ्र बाहर आजाता है । बस्ति अल्प ( छोटी ) होये तो उसके अंदर द्रव कम समानेसे, वह अल्पगुणकारक होता है । इसलिये ऐसी बस्तियों को बस्तिकर्म में छोड़ देना चाहिये । पीडनदोषजन्य व्यापत्ति व उसकी चिकित्सा नेत्रबस्ति [ पिचकारी ] को जोरसे दबानेसे द्रव [ शीघ्र अमाशय में पहुंच कर ] मुख, व नाक के मार्ग से निकलने (बाहर आने) लगता है । ऐसा होने पर शीघ्र ही उसे रोकने के लिये(गले को मलना,और हिलाना आदि ) योग्य चिकित्सा करे । एवं तीदण विरेचन औषधियों से शिरोविरेचन व कायाविरेचन करावे । शीतल पानी से तरेडा देवें । इत्यादि उपायों से प्रयत्नपूर्वक ऊर्च
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