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भेषजकीय चिकित्साधिकारः।
(६२९)
अकार्यको जाननेवाला बुद्धिमान् वैद्य,अत्यंत वीर्यवान् औषधियोंसे संयुक्त आस्थापनबस्तिका प्रयोग करें ॥ १४५ ॥
स्नेहका शीघ्र आना और न आना. अत्युष्णो वातितीक्ष्णस्सजलमरुदुपेतः प्रयुक्तोऽतिमात्रो । स्नेहस्सद्योऽतिवेगं स्त्रवति फलमतो नास्ति चेति प्रकुर्यात् ॥ सम्यग्भूयोऽनुवासं तदनुगतमहोरात्रतस्सन्निवृत्तो।।
वस्तिर्वस्वारकं वा अंशनमिव भवेज्जीर्णवानल्पनार्यः ॥१४६॥ भावार्थ:--अत्यंत उष्ण व तीक्ष्ण, जलवात से युक्त स्नेहन बस्ति को अधिक मात्रा में प्रयोग किया जाय तो बहुत जल्दी द्रव बाहर आ जाता है। उस से कोई प्रयोजन नहीं होता है । उस अवस्था में बार २ अच्छी तरहसे अनुवासन बस्ति का प्रयोग करना चाहिये । बस्ति के द्वारा प्रयुक्त स्नेह यदि एक दिन रात में भी [ २४ घंटे में. ] बाहर आजावे तो भी वह दोषकारक नहीं होता है। बल्कि बरित के गुणको करता है। लेकिन वह पेट में ही भोजन के सदृश पच जावे तो अल्पगुण को करता है [ उस से अधिक फायदा नहीं होता है ] ॥१४६॥
स्नेहबस्ति का उपसहार. इत्यनेकविधदोषगणाव्यस्सञ्चिकित्सितयतः कथितोऽयम् । . स्नेहबस्तिरत ऊर्ध्वमुदारो वक्ष्यते निगदितोऽपि निरूहः ॥ १४७ ॥: ..
भावार्थ:- इस प्रकार स्नेहबस्ति ( अनुवासनबस्ति ) के अनेक प्रकार के उपद्रव और उन की चिकित्साओं का निरूपण किया गया । इस के आगे, जिसका कि कथन पहिले किया गया है, ऐसे निरूहबस्ति के विषय में फिर भी विस्तृतरूपसे प्रतिपादन करेंगे ॥ १४७ ॥
___ निरूहवस्तिप्रयोगविधि. स्नेहवस्तिमथवापि निरूह कर्तुमुद्यतमनाः सहसैवा-। भ्यक्ततप्ततनुमातुरमुत्सृष्टात्ममूत्रमलमाशु विधाय ॥ १४८॥ प्रोक्तलक्षणनिवातगृहे मध्येऽच्छभूमिशयने त्वथ मध्या-।..
न्हे यथोक्तविधिनात्र निरूहं योजयेदधिकृतक्रमवेदी ॥ १४९ ॥ भावार्थ:-स्नेहबस्ति अथवा निरूहनबस्तिका प्रयोग जिस समय करने के लिये वैद्य उद्यत हो उस समय शीघ्र ही रोगी को अभ्यंग (तैल आदि स्नेहका मालिश)
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