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भेषजकर्मोपद्रवचिकित्साधिकारः ।
( ६२७ )
प्रसेक [ लार टपकना ] होता है । ऐसा हो जानेपर दोषों के अनुसार ( तत्तदोषनाशक ) हितकारक निरूबस्ति का प्रयोग करें ॥ १४०॥
अन्नाभिभूतस्नेह के उपद्रव
संपूर्णाहारयुक्ते सुविहितहितकृत् स्नेहवस्तिप्रयुक्तो । प्रत्येत्यन्नातिमिश्रस्तत इह हृदयोत्पीडनं श्वासकासौ ॥ वैस्वर्याच कावप्यनिलगतिनिरोधो गुरुत्वं च कुक्षौ । भूयात् कृत्वोपवासं तदनुविधियुतं दीपनं च प्रकुर्यात् ॥ १४१ ॥ भावार्थ:- :-भर पेट भोजन किये हुए रोगी को हितकारक स्नेहबस्ति को शास्त्रोक्त विधि से प्रयोग करने पर भी, वह अन्न से अभिभूत ( अन्न के आधीन ) हो कर बाहर नहीं आता है जिससे हृदय में पीडा, श्वासकास, वैस्वर्य ( स्वर का विकृत हो जाना) अरुचि, वायु का अवरोध, व उदर में भारीपना उत्पन्न होता है । यह उपद्रव उपस्थित होने पर, रोगी को लंघन कराकर पश्चात् विधिप्रकार दीपन का प्रयोग करना चाहिये ॥ १४१ ॥
अशुद्धकोष्ठ के मलमिश्रितस्नेह के उपद्रव.
अत्यंताशुद्धकोष्ठे विधिविहितकृतः स्नेहः बस्तिः पुरीषो-1 न्मिश्री नैवागामिष्यन्मलनिलयगुरुत्वातिशूलांगसादा- ॥ धमानं कृत्वातिदुःखं जनयति नितरां तत्र तीक्ष्णौषधैर्वा । स्थाप्युग्रं चानुवासं वितरतु विधिवत्तत्सुखार्थे हितार्थम् ॥ १४२ ॥
भावार्थ:- जिस के कोष्ट अत्यंत अशुद्ध है [ विरेचन व निरूहबस्तिद्वारा कोष्ठ का शोधन नहीं किया गया हो ] ऐसे मनुष्य को शास्त्रोक्त विधि से प्रयुक्त हितकारक भी स्नेहवस्ति मल से मिश्रित होकर, बाहर न निकलती है और वह पका शय में गुरुत्व ( भारीपन ) व शूल अंगो में थकावट व अफरा को उत्पन्न करके अत्यंत दुःख देती है । ऐसा होनेपर रोगी के सुख, व हित के लिये त्रिधि प्रकार तीक्ष्ण औष धियों से, तीक्ष्णआस्थापन व अनुवासन बस्ति का प्रयोग करें ॥ १४२ ॥
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ऊर्ध्वगतस्नेह के उपद्रव
वेगेनोत्पीडितासावधिकतरमिह स्नेह उत्पद्यतोर्ध्वं । व्याप्तं श्वासोरुका सारुचिवमधुशिरोगौरवात्यंतनिद्राः ॥
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