________________
भेषजकपद्रवचिकित्साधिकारः ।
पित्तघ्ननिरूह बस्ति.
क्षीरवृक्षकमलोत्पलकाकोल्यादिनिकथिततोय सुशीताः । बस्तयः कुपितपित्तहितास्ते शर्करा घृतपयः परिमिश्राः ॥ १५३ ॥
भावार्थ:- पित्तप्रकोप से उत्पन्न विकारो में दूधियावृक्ष, कमल, नीलकमल एवं कोकोल्यादिगण से तैयार किये हुए काथ में शक्कर, घी व दूध को मिलाकर बस्ति देवे तो हितकर होता है ॥ १५३ ।।
( ६३१ )
कफवननिरूद्धबस्ति.
राजवृक्ष कुटजत्रिकटोग्राक्षारतीयसहितास्तु समूत्राः ।
बस्तयः प्रकुपितोरुकफघ्ना स्सैंधवादिलवणास्तु सुखोष्णाः ॥ १५४ भावार्थ:- -अमलतास, कूडा, सोंठ, मिरच, पीपल, वच, इन के क्वाथ व कल्क में क्षारजल, गोमूत्र व सैंधवादि लवणगण को मिलाकर कुछ गरम २ बस्ति देवें तो यह प्रकुपितभयंकरकफ को नाश करती है ॥ १५४ ॥
शोधन बस्ति.
शोधनद्रवसुशोधन कल्कस्नेहसंघवयतापि च ताः स्युः । बस्तयः प्रथितशेोधनंसज्ञाश्शोधनार्थमधिकं विहितास्ते || १५५ ॥
भावार्थ:-शोधन औषधियों से निर्मित द्रव, एवं शोधन औषधियोंले तैयार किया गया कल्क, तैल, सेंधालोण, इन सब को मिलाकर तैयार की गयी बस्तियोंको शोधनबस्ति कहते हैं । ये वस्तियां शरीर का शोधन ( शुद्धि ) करने के लिये उपयुक्त हैं ॥ १५५ ॥
Jain Education International
लेखन बस्ति.
क्षारमूत्रसहिताः त्रिफलाकाथोत्कटाः कटुकभेषजमिश्राः । ऊषकादिलवणैरपि युक्ता बस्तयस्तनुविलेखनकाः स्युः ॥ १५६॥
भावार्थ:--- त्रिफला के काथ में कटु औषधि व क्षारगोमूत्र उषकादिगणोक औषधियों के कल्क, लवणवर्ग इन को डालकर जो वस्ति तैयार की जाती है उसे लखनवास्ते कहते हैं । क्यों कि यह बस्ति शरीर के दोषों को खरोचकर निकालती है ॥
१ काकोल्यादिगण - काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, ऋद्धि, वृद्धि, मेदा, गिलोय मुगवन, पवन, पद्माख, वंशलोचन, काकडशिंगी, पुंडरिया, जीवंती, मुलहठी, दाख ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org