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भेषजकमीपद्रवचिकित्साधिकारः ।
(६१३ )
वस्तिके गुण और दोष. अथात्र सद्वरितविधानसद्विधौ भवत्यचिंत्या बहवो महागुणाः। तथैव दुर्वैद्यकृते तु दुर्विधौ भवत्यचित्या बहवोऽपि दुर्गुणाः ॥ ८८ ॥
भावार्थ:---बस्तिप्रयोग को यदि शास्त्रोक्त विधिपूर्वक यथावत् किया जाय तो अचिंत्य व बहतसे उत्तमगुण होते हैं। यदि अज्ञानी वैद्य ने विधिको न जानकर यद्वा तद्वा किया तो उस से अनेक अचिंत्य दोष भी उपस्थित होते हैं ॥ ८८ ॥
घस्तिव्यापच्चिकित्सावर्णनप्रतिज्ञा. विधिनिषेधश्च पुरैव भाषितावतःपरं बस्तिविपच्चिकित्सितम् । प्रवक्ष्यते दक्षमनोहरौषधैः स्वनेत्रबस्तिप्रणिधान भेदतः ॥ ८९ ॥
भावार्थः-किस रोग के लिये बस्तिकर्म हितकर है, और किस में उस का प्रयोग नहीं करना चाहिये इत्यादि प्रकार से बस्तिकर्म का विधिनिषेध पहिले से कहा जा चुका है । अब यहां से आगे नेत्र ( पिचकारी ) दोष, बस्तिदोष, प्रणिधान [ पिचकारी के अंदर प्रवेश करने का ] दोष, इत्यादि दोषों से उत्पन्न, बस्तिक्रिया की व्यापत्ति, और उन व्यापत्तियों की योग्यचिकित्सा का वर्णन, उन व्यापत्तियों को जीतने में समर्थ व मनोहर औषधों के साथ २ किया जायगा ॥ ८९ ॥
___ बस्तिप्रणिधान में चलितादिव्यापच्चिकित्सा. अथेह नेत्रं चलितं विवर्तितस्तथैव तिग्विहितं गुदक्षतम् । करोति तत्र व्रणवञ्चिकित्सितं विधाय संस्वेदनमाचरेद्भिषक् ॥९.०॥
भावार्थ:----बस्ति [ पिचकारी ] को अंदर प्रवेश करते समय वह हिल जावे व विवर्तित हो जावे ( मुड जावे ) अथवा तिरछा चला जाये तो वह गुदा में जखम करती है । ऐसा होने पर व्रणोक्तचिकित्सविधान से चिकित्सा करके वैद्य स्वेदन करे अर्थात् गुदभाग को सेक ।। ९० ॥
ऊवाक्षिप्त व्यापच्चिकित्सा. तयोर्ध्वमुक्षिप्त इहानिलान्वितं सफेनिलं चौषधममत्क्षणात् । भिन्नत्ति तद्वंक्षणमाशु तापितं, निरूहयेदप्य वासयेत्ततः ॥ ११ ॥
भावार्थ:---यदि पिचकारी, ऊपर की ओर झुक जावे तो, वह वात व फेन ( झाग ) युक्त औषध को क्षणकाल से ऊपर की ओर वमन करते हुए, वंक्षण [राङ
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