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कल्याणकारके
होता है अर्थात् बस्ति के द्वारा प्रकुपितदोष हृदय के तरफ जाकर उसे आक्रमण करते हैं । (इसे हृदयोपसर्पण कहते हैं) जिस से, उसी समय मूर्छा, उन्माद (पागलपना) दाह, शरीर का भारीपन, लार गिरना आदि नाना प्रकार के उपद्रव होते हैं ॥११७॥
हृदयोपसरण चिकित्सा. त्रिदोषभैषज्यगणविंशोधनैर्निरूहयेच्चाप्यनुवासयेत्ततः ।
अंगग्रहअतियोगलक्षण व चिकित्सा. अथानिलात्मा प्रकृतेविरूक्षितः सुदुःखशय्याधिगतस्य वा पुनः ॥११८॥ कृतापार्योषधबास्तरुद्धतः करोति चांगग्रहण सुदुर्ग्रहम् । तथांगसादांगविजृभदेपथु-प्रतीतवाताधिकवेदनाश्रयान् ॥ ११९ ॥ अतोऽत्र वातामयसच्चिकित्सितं विधेयमत्युद्धतवातभेषजैः । अथाल्पदोषस्य मृदूदरस्य वा तथैव सुस्विन्नतनोश्च देहिनः ॥ १२० ॥ सुतीक्ष्णबस्तिस्सहसा नियोजितः करोति साक्षादतियोगमद्भुतम् । तमत्र यष्टीमधुकैः पयोघृतैः विधाय बस्ति शमयेद्यथासुखम् ॥ १२१ ॥
भावार्थ:-हृदयोपसरणचिकित्सा-हृदयोपसर्पण के उपस्थित होनेपर, त्रिदोषनाशक व शोधन औषधियों द्वारा निरूहबस्ति देकर पश्चात् अनुवासन बस्तिका प्रयोग कर देना चाहिये । अंगग्रहण लक्षण-जिन का शरीर अधिक बात से व्याप्त हो, तथा रूक्षप्रकृतिका हो, [शरीर अधिक रूक्ष हो ] एवं बस्तिकर्म के लिये जैसा सोना चाहिये वैसा न सोकर यद्वा तद्वा सोये हों, ऐसे मनुष्यों के लिये यदि अल्पर्यि वाले औषवियों से संयुक्त बस्ति का प्रयोग किया जाय तो वह दुःसाध्य अंगग्रह (अंगो का अकडना) को उत्पन्न करता है, जिसमें अंगो में थकाव, जंभाही, कम्प [ अंगो के कापना ] एवं वात के उद्रेक होने पर जो लक्षण प्रकट होते हैं वे भी लक्षण, प्रकट होते हैं । उसकी चिकित्सा-ऐसा होने पर, वात को नाश करने वाले विशिष्ट औषधों द्वारा, वातव्याधि में कथित चिकित्साक्रमानुसार चिकित्सा करें। आतियोग का लक्षण---जिस के शरीर में दोष अल्प हो, उदर [ कोष्ट ] भी मृदु हो, एवं जिस के शरीर से अच्छीतरह से पसीना निकाला गया हो अर्थात् अधिक स्वेदन किया गया हो ऐसे मनुष्यों को यदि सहसा अत्यंत तीक्ष्ण, व आधिकप्रमाण में बस्ति का
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