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भेषजकर्मे |पद्रवचिकित्साधिकारः ।
( ६१७ )
भावार्थ:- शिर ऊंचा करके सोने से घी और तैल से बस्ति भर जाती है और जिस से पीला व स्निन्ध मूत्र आता है । ऐसा होनेपर उत्तरबस्ति का प्रयोग करना चाहिये ॥ १०५ ॥
कर बस्ति
भावार्थ:- शरीर और दोनों साथल को संकुचित सिकुड ) देने से औषध ऊपर जाता है और इसलिये वह बराबर वापिस नहीं आता है । इन दोनों व्यापत्तियो में द्रव को बाहर निकालने के लिये, आगम के तत्व को जाननेवाला वैद्य, प्रयत्नपूर्वक फिर बस्तिका प्रयोग करें । समतल में, दाहिने करवट से लेटे हुए मनुष्य को बस्ति देने से वह कुछ भी कार्यकारी नहीं होता है ॥१०६॥१०७॥ अयोगादिवर्णनप्रतिज्ञा.
इहाधिकान्कुब्जशरीर योजितान् । विशल्यतो वंक्षणमेव वान्यतः ॥ तथैव संकुचितदेह सक्थिके । यतोर्ध्वमुत्क्रम्य न चागमिष्यति ॥ १०६ ॥ तयोश्च बस्ति विदधीत यत्नती । विनिर्गमायागमतत्वविद्भिषक् ॥ तले च तद्दक्षिणपार्श्वशायिनः । कृतोप्यकिंचित्कर एवं सांप्रतम् ॥
१०७ ॥
अथाप्ययोगादिविधिप्रतिक्रिया प्रवक्ष्यते लक्षणतश्चिकित्सितैः । इहोत्तरे चोत्तरसंकथाकथेत्यथ ब्रवीम्युक्तमनुक्तमप्यलम् ॥ १०८ ॥ भावार्थ- -- अब अयोगादिकों के विधि, [ कारण ] उन के लक्षण व चिकित्सा का वर्णन करेंगे । इस उत्तरतंत्र में उत्तर के ( बाकी के ) सभी बातों के कथन करने की जरूरत है जिनका कि कथन पूर्व में नहीं किया हो । अतएव अयोगादि की विधि इत्यादिकों के कथन के पश्चात् उक्त [ कहा हुआ ] व अनुक्त [ नहीं कहा हुआ ] विषय को भी स्पष्टतया कथन करेंगे ॥ १०८ ॥ अयोग, आध्मानलक्षण व चिकित्सा.
किया हो या अस्पष्टरूप से
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सुशीतलो वाल्पतरौषधोपि वा तथाल्पमात्रापि करोत्ययोगताम् । तथा नभो गच्छति बस्तिरुद्धतं भवत्यथाध्मानमतीव वेदना ॥ १०९ ॥
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