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भेषजकमीपद्रवचिकित्साधिकारः ।
(६११ )
प्रवाहिका, हृदयोपसरण, व विबंध की चिकित्सा. तामास्रावविकारभेषजगणेरास्थाप्य संशाध्य त-। त्पश्चादग्निकरौषधैरहिमपानीयं तु संपाययेत् ॥ ऊध्वोधश्च प्रवृत्तभेषजगतिं यो वात्र संस्तंभये-। दज्ञानाद्हृदयोपसंसरणतां कृत्वात्र दोषास्तथा ॥ ८२ ॥ हृत्पीडां जनयन्त्यतश्च मनुजो जिहां सदंतामरं । खादंस्ताम्यति चोर्ध्वदृष्टिरथवा मूर्च्छत्यतिक्षामतः ॥ तं चाभ्यज्य सुखोष्णधान्यशयने संस्वेश्व यष्ठीकषा- | यैः संसिद्धतिलोभ्दवेन नितरामत्रानुसंवासयेत् ॥ ८३ ॥ तं तीक्ष्णातिशिरोविरेचनगणैस्संशोध्य यष्ठीकषायोन्मित्रैरपि तण्डुलांबुभिररं तं छर्दयेदातुरम् ।। ज्ञात्वा दोषसमुच्छ्रयं तदनु तं सदस्तिभिः साधये- । धः सशुद्धतनुः सुशीतलतरं पानादिकं सेवते ॥ ८४ ॥ स्रोतस्वस्य विलीनदोषनिकरः संघातमापद्यते । व! मूत्रमरुन्निरोधनकरो बध्नात्यथाग्निस्वयं ।। आटोपज्वरदाहशूलबहुमूच्छाद्यामयास्स्युस्तत-।
स्तं छा सनिरूहयेदपि तथा तं चानुसंवासयेत् ॥ ८५ ॥ भावार्थ:- उस प्रवाहिका से पीडित मनुष्य को, परिस्राव व्यापत्ति में कथित औषधसमूह से आस्थापन बस्ति देवें और संशोधन [विरेचन ] करें । उस के बाद अग्निवर्धक औषधियों के साथ गरमपानी को पिलाना चाहिये अथवा अग्निकारक औषधिसिद्धजल को पिलावें । हृदयांपसरण लक्षण-जो मनुष्य धमन विरेचन के औषध को सेवन कर उस से आते हुए वेग-वमन या विरेचन को अज्ञान से रोक लेता है, तो उन के दोष, हृदय के तरफ गमन कर, हृदय में पीडाको उत्पन्न करते हैं, और जिससे मनुष्य जीभ को काटता है, दांतोंको किट किटाता है, संताप युक्त होता हुआ ऊपर की ओर आंखे फाड देता है । अत्यंत कृश होकर मूञ्छित होजाता है । इसे हृदयोपसरण व्यापत्ति कहते हैं। इस की चिकित्सा- ऐसा होनेपर उसे धान्यसे स्वेदित कर के मुलैठी के काथ (काढे)से साधित तिल के तेल से अनुवासनबस्ति देनी चाहिये । तथा शिरोविरेचन गणोक्त तीष्ण औषधियों से शिरोविरेचन करा कर, मुलैठी के क्वाथ ! काढे ) से मिश्रित चावल के धोवन से वमन कराना चाहिये। इतना करने पर भी यदि उस रोगी में दोषोंक
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