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कल्याणकारके
भावार्थ:-विरेचक औषधि का सेवन करने पर क्रमशः वात, जल. ( मूत्र ) मल, पित्त, औषध और कफ निकलते हैं । इस प्रकार शरीरस्थ दोष निकल जावे, वायु का अनुलोमन हो जाये तो समझना चाहिये कि अच्छी तरह से विरेचन होगया है । इस प्रकार जिस का शरीर अच्छी तरह से शुद्ध होगया है वह श्रम व ग्लानि से युक्त होता है । उस का शरीर हल्का हो जाता है । मन संतुष्ट होता है। प्यास लगती है। अत्यंत कृश होता है । उस की अग्निवृद्धि होती है। ये लक्षण प्रकट होवे तो उसे उसी दिन यवागू पिलानी चाहिये ॥ ४६ ॥
यवागू पान का निषेध मंदाग्निबलवान्तृषाविरहितो दोषाधिको दुर्विरि-। । तो वा तद्दिवसे न चैव निपुणः शक्त्या च युक्त्या पिबेत् ॥ वांसस्यापि विरेचितस्य च गुणाः प्रागेव संकीर्तिता। स्तेषां दोषगुणानिषेधविधिना बुध्या विदध्याबुधः ॥ ४७ ॥
भावार्थः- यदि विरिक्त रोगी को अग्निमंद होगया हो, बलवान् हो, तृषारहित हो, अधिक दोषों से युक्त हो, अतिरह विरेचन न हुआ हो तो ऐसी अवस्था में उसे उस दिन यवागू वगैरह पेय पीने को नहीं देना चाहिये । अच्छीतरह षमन हुए मनुष्य व विरेचित मनुष्य का गुण पहिले ही कहचुके हैं। विरेचन के सब दोषों का निषेध व गुणों की विधि अच्छीतरह जानकर विद्वान् वैद्य रोगी के लिये उपचार करें ॥ ४७ ॥
संशोधनभैषज के गुण. यस्संशोधनभेषजं तदधिकं तैष्णोष्णसौक्ष्म्यात्मकं । साक्षात्सारतमं विकाशिगुणयुकश्चार्य ह्यधश्शोधय-- ॥ त्यूर्व यात्यविपकमेव वमनं सम्यग्गुणोद्रेकतः ॥
पीतं तच्च विपच्यमानमसकृद्यायादधोभागितम् ॥ ४८ ॥
भावार्थ-जो संशोधन | बमन संशोधन ] करने वाला औषध है, वह अत्यंत तीक्ष्ण, उष्ण, सूक्ष्म, सार ( सर ) व विकासी गुण युक्त होता है । वे अपने विशिष्ट स्वभाव व गुणों के द्वारा ऊर्ध्व शोधन ( वमन ) व अधःशोधन [ विरेचन ] करते हैं । [ वमनौषध व विरेचनौषध ये दोनों गुणों में सम होते हुए परस्परविरुद्ध दो कामों को किस प्रकार करते हैं ? इस का इतना ही उत्तर है कि, विरेचनौषध तीक्ष्ण आदि गुणों
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