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कल्याणकारके .
आदि चीजों को खावें एवं उसे भी अम्लवर्ग में कहे हुए खट्टे पदार्थो को खिलावें । इस प्रकार की चिकित्सासे जीभ ठीक होती है । आंखें बाहर आनेपर, उन्हे घी लगाकर, बडी कुशलता के साथ पीडन करे=मल दे। हनुस्तभ्म होनेपर कफवातनाशक, श्रेष्ठ औषधियों से ठोड़ी स्वेदन करें सेके । हिचकी, डकार, प्यास आदि उपद्रवो में, उन २ की जो चिकित्सा विधि कही है उन्हीं को करे । बेहोशी होनेपर, बांसुरी आदि के मनोहर शब्द ( संगीत ) को कान में सुनावें।
विरेचन का अतियोग अत्यधिक बढ जानेपर, चंद्रिका से[ मोर के पंखे के समान सुनहरी नील आदि वर्ण ] संयुक्त स्वच्छ जल निकलता है। तदनंतर मांस को धोये हुए पानी के के सदृश स्वरूपकाला पानी, तत्पश्चात् जीवशोणित (जीवनदायक) रक्त निकलता है । इसके भी अनंतर गुदभ्रंश ( गुदाका बाहर निकल आना ) अंगो में कम्प [ अंगोपांग के काम्पना होता है। इसी प्रकार वमन के अतियोग में कहे हुए उपद्रय भी इस में होते हैं। ऐसा होनेपर बुद्धिमान् वैद्य पूर्वकथित चिकित्साविधि [ अधिक रक्तस्राव होनेपर जो चिकित्सा कही है उसी चिकित्सा विधि ] से योग्य औषधों द्वारा प्रतीकार करें । बाहर आये हुए गुदा को, गरम तेल लगाकर [ अथवा तैल लगाकर सेक करके ] अंदर प्रवेश करा दें (क्षुद्ररोग में कहे हुए गुदभ्रंश की चिकित्सा को यहां प्रयोग करें ) शरीर काम्पने पर हमेशा वातव्याधि में कथित चिकित्साविधि का प्रयोग करें। जीभ बाहर निकल आना आदि उपद्रवो में अच्छी प्रकार की चिकित्सा करें [ पहिले वमनातियोग चिकित्सा प्रकरण में कह चुके हैं ] । अब जीवशोणित का लक्षण कहेंगे।
जीवशोणित लक्षण-जिस रक्त को कपडे के टुकडेपर लगाकर फिर गरम पानी से अच्छीतरह से धो डाले, तो यदि उसका रंग कपडे से नहीं छूटे और उसे सत्तू आदि में मिलाकर खाने के लिये कुत्ते को डालनेपर यदि कुत्ता खावे तो समझना चाहिये कि वह जीवशोणित है । इससे विपरीत लक्षण दिखनेपर समझना चाहिये कि वह जीवशोणित नहीं है बल्कि वह रक्तपित्त है ॥ ६८ ॥ ६९॥ ७० ॥ ७१ ॥७२॥७३॥ ॥ ७४ ॥ ७५॥ - जीवादान, आध्मान, परिकर्तिका लक्षण व उनकी चिकित्सा.
जीवादानमसृक्प्रवृत्तिरिति तं ज्ञात्वातिशीतक्रियां। । शीतान्येव च भेषजानि सततं संधानकान्याचरेत् ॥
यच्चाजीवशान्मरुत्पबलतो रौक्ष्यं च पीतौषधं । "
तच्चाध्मापयतीह वातमलम्जात्यंतसंरोधकृत ॥ ७६ ॥ ।
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