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भेषजक पद्रवचिकित्साधिकारः ।
अथ द्वाविंशः परिच्छेदः
मंगलाचरण व प्रतिज्ञा.
जिनेश्वरं विश्वजनार्चितं विभुं प्रणम्य सर्वोषधकर्मनिर्मित-1 प्रतीतदुर्व्यापद भेदभेषजप्रधान सिद्धांतविधिविधास्यते ॥ १ ॥
भावार्थ:—लोककें समस्त जनों के द्वारा पूर्जित त्रिभु, ऐसे श्री जिनेंद्र भगवान् को नमस्कार कर, स्नेहन स्वेदन वमनादि कर्मोके प्रयोग ठीक २ यथावत् न होने से जो प्रसिद्ध व दुष्ट आपत्तियां (रोग) उत्पन्न होती हैं, उनको उनके भेद और प्रतीकार विधान के साथ शास्त्रोक्तमार्ग इस प्रकरण में प्रतिपादन करेंगे ॥ १ ॥
स्नेहनदिकर्म यथावत् न होनेसे रोगोंकी उत्पत्ति.
अथाज्यपानावखिलौषधक्रियाक्रमेषु रोगाः प्रभवंति देहिनाम् । भिषग्विशेषाहित मोहतोऽपि वा तथातुरानात्मतयापचारतः ॥ २ ॥
( ५८५ )
भावार्थ:-- स्नेहनस्वेदनादि सम्पूर्ण कम के प्रयोगकाल में वैद्य के अज्ञान से प्रयुक्तक्रिया के प्रयोग यथावत् न होने के कारण, अथवा अक्रम प्रवृत्त होने के कारण अथवा रोगीके असंयम व अपथ्य आहारविहार के कारण मनुष्यों के शरीर में अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं ॥ २ ॥
घृतपानका योग, अयोगादि के फल.
घृतस्य पानं पुरुषस्य सर्वदा रसायनं साधुनियोजितं भवेत् । तदेव दोषावहकारणं नृणामयोगती वाप्यथवातियोगतः ॥ ३ ॥
भावार्थ:- यदि घृत पानका योग सम्यक् हो जाय तो वह रसायन हो जाता
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है । लेकिन उसका अयोग वा अतियोग होवें तो वही, मनुष्यों के शरीर में अनेक दोषों ( रोग ) की उत्पत्ति में कारण बन जाता है ॥ ३ ॥
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१ ग्रंथ में यहांपर "अनात्मया" यही पाठ है, उसके अनुसार ही अनात्मव्यवहार अर्थात असंयम यह अर्थ लिखा गया है। परंतु यहांपर "आतुराज्ञानतया" यह पाठ अधिक अच्छा मालुम होता है अर्थात् रोगीको औषधसेवन पथ्यप्रयोगादिकमें अज्ञान ( प्रमाद ) होनेसे भी अनेक रोग उत्पन्न होते हैं।
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