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भेषजकपद्रव चिकित्साधिकारः ।
( ५१३ ) वमन विरेचन के सम्यग्योग की विधि को इन में प्रयुक्त होने वाले औषधियों के सिद्ध योगों के साथ निरूपण किरेंगे ॥ ॥ ३० ॥
दोषों के बृंहण आदि चिकित्सा.
क्षीणास्तु दोषाः परिबृंहणीयाः सम्यक्प्रशम्याश्चलिताश्च सर्वे ॥ स्वस्थाः सुरक्ष्याः सततं मवृद्धाः सद्यो विशोध्या इति सिद्धसेनैः ॥ ३१॥
भावार्थ:- क्षीण ( घटे हुए) वातादि दोषों को बढाना चाहिए | कुपित दोषों शमन करना चाहिए । स्वस्थ [ यथावत स्थित ] दोषों को अच्छी तरह से रक्षण करना चाहिए | अतिवृद्ध ( बढे हुए ) दोषों को तत्काल ही शोधनकर शरीर से निकाल देना चाहिए, ऐसा श्री सिद्धसेन यति का मत है ॥ ३१ ॥
संशोधन में वमन व विरेचन की प्रधानता.
संशोधने तद्वमनं विरेकः सम्यक्प्रसिद्धाविति साधुसिद्धैः ॥ सिद्धांतमार्गभिहितौ तयोस्तद्वक्ष्यामहे यद्वमनं विशेषात् ।। ३२ ।।
भावार्थ:- दोषों के संशोधन कार्य में वमन और विरेचन अत्यंत प्रसिद्ध है अर्थात् दोषों को शरीर से निकाल ने के लिए वमन विरेचन बहुत ही अच्छे उपाय वा साधन हैं ऐसा सिद्धांतशास्त्र में महर्षियों ने कहा है । इन दोनों में प्रथमत वमन विधि को विशेषरूप से प्रतिपादन करेंगे ॥ ३२ ॥
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चमन में भोजनविधि.
rist यथावद्वमनं करिष्यामीत्थं विचित्यैव तथापराण्हे । भोजयेदातुरमाशु धीमान् संभोजनीयानपि संप्रवक्ष्ये ॥ ३३ ॥
भावार्थ:- कुशल वैद्य को उचित है कि यदि उसने दूसरे दिन रोगी के लिये मन प्रयोग करने का निश्चय किया हो तो पहिले दिन शामको रोगीको अच्छीतरह ( अभिष्यंदी व द्रवप्राय आहार से ) शीघ्र भोजन कराना चाहिये । किनको अच्छी तरह भोजन कराना चाहिये यह भी आगे कहेंगे ॥ ३३ ॥
संभांजनीय अथवा वाम्यरोगी.
ये तुत्को
हुदोषदुष्टास्तीक्ष्णाग्नयः सत्वबलप्रधानाः ।
ये ते महाव्याधिगृहीतदेहाः संभोजनीया भुवनप्रवीणैः || ३४ ॥
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