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(५६०)
कल्याणकारक
शास्त्र की परंपरा. स्थानं रामगिरिगिरींद्रसदृशः सर्वार्थसिद्धिप्रदं । श्रीनंदिप्रभवोऽखिलागमविधिः शिक्षाप्रदः सर्वदा ॥ प्राणावायनिरूपितार्थमखिलं सर्वज्ञसंभाषितं ।। सामग्रीगुणता हि सिद्धिमधुना शास्त्रं स्वयं नान्यथा ॥ ३ ॥
भावार्थ:-आचार्य कहते हैं कि इस ग्रंथ की हमने मंदराचल के समान समस्त प्रयोजनकी सिद्धि कर देने में समर्थ रामगिरि पर बैठकर रचना की है और यह श्रीनंदि आचार्यजी के सदा शिक्षाप्रद उपदेशों से उत्पन्न है । एवं सर्वज्ञ के द्वारा प्रतिपादित प्राणावाय नामक शास्त्र में निरूपित सर्वतत्व है। इन सब सामग्रियों की सहायता से इस कार्य में हमें सफलता हुई । अन्यथा नहीं होस र ती थी। इस श्लोक का सार यह है कि प्रथमतः सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित इस आयुर्वेदशास्त्र को गणधरोंने द्वादशग शास्त्र के अंगभूत प्राणावाय पूर्वगतशास्त्र में प्रथित किया है अर्थात् इस का वर्णन किया । आचार्य परंपरागत इस प्राणाबाय वेद के मर्मज्ञ श्री श्री नंदि आचार्य से हमने अध्ययन किया । उस को इस ग्रंथरूपमें निर्माण करने के लिये मनोहर रामगिरि नामक पर्वत भी मिल गया । इन्ही की सहायता से हमें ग्रंथ बनाने में सफलता मिली । ये सामग्री न होती तो उस में हम सफल नहीं हो सकते थे । अर्थात् इस को पूर्व आचार्य परम्परा के अनुसार ही निर्माण किया है अपने स्वकपोलकल्पनासे नहीं ॥ ३ ॥
शानेऽस्मिन्पदशास्त्रवस्तविपया ये ते गृहीतं तत- । स्तेषां तेषु विशेषतोऽर्थकथनं श्रोतव्यमेवान्यथा ॥ शास्त्रस्यातिमहत्वमर्थवशतः श्रोतुमनोमोहनं ॥ व्याख्यातुं च भवेदशेषवचनस्यादर्थतः संकरः ॥ ४ ॥
भावार्थः- इस शास्त्र में बातुवों के विवेचन करने के लिये पदशास्त्र का प्रयोग किया है। उन्ही के अनुसार उन का यथार्थ व विशेष अर्थ करना चाहिये । क्यों कि शास्त्र का महत्व उस के अर्थ से है जो श्रोताबों के मन को मोहित करता हो । और वह व्याख्या करने योग्य होता है । अन्यतः अर्थ में संकर हो जायगा ॥ ४ ॥
तस्माद्वैद्यमुदाहरामि नियतं बह्वर्थमर्थावहं । वैद्यं नाम चिकित्सितं न तु पुनः विद्योद्भवार्थातरम् ।। व्याख्यानादवगम्यतेऽर्थकथनं संदेहवद्वस्तु तत् ।। सामान्येष विशेषितसिस्थतमतः पद्मं यथा पंकजम् ॥ ५॥
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