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(५२८)
कल्याणकारके
आलपशीततोयबहुवातनिषेवणतदिवातिनि-। द्राद्यखिलान्यसात्म्यवहुदोषकराण्यपहृत्यमा ॥ समेकं निजदोषसंशमनभेषजसिद्धजलाद्यशेषमा । हारमुदाहराम्यनुपमागमचादितमग्निवृद्धये ॥ ९॥
भावार्थ:-जिस रोगी को स्नेहन, तापन, स्वेदन विरेचन, अनुवासन, आस्थापन, रक्तमाक्षण, शिरोविरेचन का प्रयोग किया है उसे उचित है कि वह अतिरोष [क्रोध ] मैथुन बहुत समय तक बैठा रहना, अधिक चलना फिरना, अधिक समय खडे ही रहना, अत्यंत श्रम करना, उच्च स्वर से बोलना, शोक करना, गुरु भोजन, वाहनारोहण, धूप, ठण्डा पानी व अधिक हवा खाना, दिन में सोना, आदि । ऐसे कार्यों को जो असात्म्य, व अधिक दोषोत्पादक हैं, एक मास तक छोड कर, अपने दोष के उपशमन के योग्य औषधसिद्ध जल अदि समस्त आहार को, अग्निवृद्धयर्थ ग्रहण करना चाहिये जिसे आगम के अनुकूल वर्णन करेंगे ॥ ८ ॥९॥
अग्निवृद्धिकारक उपाय. अष्टमहाक्रियाभिरुदराग्निरिहाल्पतरो भवे- । न्नृणामनलवर्धनकरैरमृतादिभिरावहेन्नरः॥ यत्नपरोऽग्निमणुभिस्तृणकाष्ठचयैःक्रमकमा । दत्र यथा विरूक्षगणैः परिवृद्धितरं करिष्यति ॥ १०॥
भावार्थ:--आठ प्रकार के महाक्रियावों [ स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, अनुवास नबस्ति, आस्थापन बस्ति, रक्तमोक्षण, शिरोविरेचन ] से मनुष्योंकी उदराग्नि मंद हो जाती है । उसे अग्निवृद्धिकारक जलादि के प्रयोगों से वृद्धि करनी चाहिये । जिस प्रकरजरासे अग्गिकण को भी प्रयत्न करनेवाला सूक्ष्म व रूक्ष, घास, काष्ठ, फूंकनी आदि के सहायता से क्रमशः बढा देता है ॥१०॥
अग्निवर्द्धनार्थ जलादि सेवा. उष्णजलं तथैव श्रृतीतलमप्यनुरूपतो।। यवाणू सविलेप्यदूषवरधूप्यखलानकृतान्कृतानपि ।।. स्वल्पघृतं घृताधिकसुभोजनमित्यथाखिलं । नियोजयेत्त्रिद्वियुतकभेदगणनादिवसेष्वनलत्रिकक्रमात् ॥११॥
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