________________
शास्त्रसंग्रहाधिकारः।
(५११)
भावार्थः--जो रोगी सर्वरूप को विकृतरूप से देखता है, आर्तनाद जैसे विष्कृत शब्द को सुनसा है, गंध को भी विकृतरूप से सूंघता है, अपनी जिव्हा में रख रहित, विकारस्वाद ( निस्वाद ) अथवा विकृत रसवाली होनेसे सम्पूर्ण रसों को विरस कहता है, स्पर्शको भी नहीं जानता एवं 'लाप करता है, निर्बल है, ऐसे रोगी को वैच असाच समझकर छोड देवें ॥ ३९ ॥
आननसंभृतश्वयथुरंघ्रिगतः पुरुषं-। हंति तदंघ्रिजोप्यनुतदाननगः प्रमदां- ॥ गगुह्यगतस्तयोर्मतिकरोर्धशरीरगतो- । प्यर्धतनोर्विशोषणकरः कुरुते मरणं ॥ ४० ॥
भावार्थ:--पुरुष के मुख में शोथ उत्पन्न होकर क्रमशः पाद में चला जावे तो और स्त्री के प्रथम पाद में उत्पन्न होकर मुख में आजावें तो, मारक होता है । गुह्य भाग में उत्पन्न शोथ, एवं शरीर के अर्धभाग में स्थित होकर अर्धशरीर को सुखानेवाला शोथ स्त्रीपुरुष दोनों को मारक होता है ॥ ४० ॥
यो विपरीतरूपरसगंधविवर्णमुखो। नेत्ररुजां विना सृजति शीतलनेत्रजलम् ॥ दाहनखद्विजाननसमुद्गतपुष्पसुग-।
र्भातिसितासितैररुणितैरनिमित्तकृतैः ।। ४१ ॥ भावार्थ:-जो रोगी विपरीत रूप रस गंधादिकों का अनुभव करता हो, जिसका मुख विवर्ण (विपरीत वर्णयुक्त ) होगया हो, जिस के नेत्र से कोई नेत्ररोग के न होनेपर भी शीतल पानी बहरहा हो, जिस के शरीर में अकस्मात् दाह और नाखून, दंत व मुखमण्डल में आक्स्मात् सफेद, काले व लाल पुष्प ( गोलबिंदु ) उत्पन्न होगये हों, तो समझना चाहिये कि उस रोगी का मरण अत्यंत सन्निकट है ॥ ४१ ।।
अन्यरिष्ट. यश्च दिवानिशं स्वपिति यश्च न च स्वपिति । स्पृष्टललाटकूटघटितोठूितभूरिशिरः ॥ यश्च मलं बृहत्सृजति भुक्तिविहीनतनु-। . र्यःपलपनात्पतत्यपि सचेतन एव नरः ॥ ४२ ॥ ,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |