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(५३८)
कल्याणकारके
पागमपारगस्वमनसैव विचार्य निश्चितं वदेत ।
स्वप्नविकारचेष्टितविरुद्धविलक्षणतो विचक्षणः ॥ ३१ ॥ भावार्थ:-समस्तशास्त्रो में प्रवीण वैद्य जैसे अत्यधिक बादलों के होनेपर वर्मत होना अनिवार्य कह सकते हैं, उसी प्रकार विशिष्ट मरणचिन्होंके प्रकट होने से मरण भी शीघ्र अवश्य होता है, ऐसा अपने मन में निश्चय कर कहें । विकृतस्वप्न, विरुद्धचेष्टा, व विरुद्धलक्षण, इनसे आयु का निर्णय कर सकता है एवं मरण का ज्ञान कर सकता है ॥ ३१ ॥
मरणसूचकस्वप्न. स्वप्नगतोऽतिकंटकतरूनधिरोहति चेद्भयाकुलो । भीमगुहांतरेऽपि गिरिकूटतटात्पतति ह्यधोमुखः ॥ यस्थ शिरोगलोरसि तथोच्छ्रितवेणुगणप्रकार-।
तालादिसमुद्भवो भवति तज्जनमारणकारणापहम् ॥ ३२ ।। भावार्थ:-- यदि रोगी स्वप्न में व्याकुल होकर अपने को तीव्रकंटकवृक्ष पर चढते हुए देखता हो, कोई भयंकर गुफा में प्रवेश कर रहा हो, कोई पर्वत वगैरह से नीचे मुखकर गिरता हो एवं यदि रोगी के शिर, गल व हृदय में ऊंचे बांस व उसी प्रकार के ऊंचे ताल [ ताड | आदि वृक्षों की उत्पत्ति मालूम पडती हो तो यह सब उसके मरणचिन्ह हैं ऐसा समझना चाहिये अर्थात् ये लक्षण उस के होनेवाले मरण को बतलाते हैं ॥ ३२ ॥
यानखरोष्ट्रगर्दभवराहमहामहिषोग्ररूपस- । ब्यालमृगान् व्रजेत् समाधिरुह्य दिशं त्वरितं च दक्षिणं ॥ . तैलविलिप्तदेइमसिता वनिता बथवातिरक्तमा- । ल्यांवरधारिणी परिहसन्त्यसकृत्परिनृत्यतीव सन् ॥ ३३ ॥ . प्रेतगणस्सशल्य बहुभस्मधरैरथवात्मभृत्यब- । गैरतिरक्तकृष्णवसनावृतलिंगिभिरंगनाभिर-- ।। त्यंतविरूपिणीभिरवगृह्य नरो यदि नीयतेऽत्र । कार्यासतिलोत्थकल्कखललोहचयानपि यः प्रपश्यति ॥ ३४ ॥
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