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कल्याणकारके
भावार्थ:-इसलिये आंखोंके नाश के लिए कारणीभूत इन भयंकर अधिमथ गंगों गुणों को अच्छीतरह विचार कर उनके योग्य औषधियोंसे एवं अभिष्यंद रोगोक्त औषधियोंसे बहुत विचार पूर्वक चिकित्सा करें ॥ १६० ॥
। हताधिमंथ लक्षण. भवेदधीमन्थ उपेक्षितोऽनिल-। प्रभूतरोगोऽक्षिनिपातयत्यलं ॥ असाध्य एषोऽधिक वेदनाकुलो। हताधिमन्थो भुवि विश्रुतो गदः॥१६॥
भावार्थ:-बातज अधिमन्थ की उपेक्षा करनेपर एक रोगकी उत्पत्ति होती है, जो आंखों को गिराता है एवं जिसमें अन्यंत वेदना होती है उसे हताधिमथ रोग कहते हैं । वह असाध्य होता है ॥ १६१ ॥
शोफयुक्त, शोफरहित नेत्रपाक लक्षण. प्रदेहकण्डामवदाहसंयुतः । प्रपक्वापिंधीफलसन्निभो महान् ॥
सशोफकः स्यादखिलाक्षिपाकइ-! त्यथापरः शोफविहीनलक्षणः॥१६२॥ • भावार्थ:-मलसे लिप्तसा होना, खाज, स्त्राव व दाहसे युक्त होकर बिंबीफलके समान जो लाल सूज गया हो उसे शोफसहित अक्षिपाक कहते हैं । इसके अलावा शोफरहित अक्षिपाक भी रोग होता है ॥ १६२ ॥
वातपर्यय लक्षण. यदानिलः पक्ष्मयुगे भ्रमत्यलं । ध्रुवं सनेत्रं त्वधिक श्रितस्तदा । करोति पर्यायत एव वेदनां । स पर्ययस्स्यादिह वातकोपतः ॥ १६३ ॥
भावार्थ:-जब वायु भृकुटी व नेत्र को विशेषतया प्राप्त कर दोनों पलको में घूमता है अर्थात् ( भृकुटी, नेत्रकी अपेक्षा ) कुछ कम अंशमें परको में आश्रित होता ह तब ( कभी नेत्र, कभी दोनों पलके, कभी भृकुटो प्रदेशमें घूमता है तो)पर्याय रूप से अर्थात् कभी नेत्र में कभी भकुटी में कभी पलकोम वेदना उत्पन्न करता है। यह उद्रिक्त वातने उत्पन्न होता है। इसे वातपर्यय रोग कहते हैं ॥ १६३ ॥
शुष्काक्षिपाक लक्षण. यदाक्षि संकुंचितवमदारुणं । निरीक्षितु रूक्षतरापिलात्मकं । न चैव शक्नोत्पनिलप्रकोपलो । विशुष्कपाप.प्र.हतं तदादिशेत् ॥ १६४ ॥
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