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(४२०)
कल्याणकारके
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उष्णवात लक्षण. श्रमयुतोष्णनिरूक्षनिषेवया । कुपितपित्तयुतो मरुदुद्धतः। प्रजननाननबीस्तगुदं दहन् । गमयतीह जलं मुहुरुष्णवत् ॥ ४९ ॥
भावार्थ:--आधिक परिश्रम करने से, उप्ण व अत्यंत रूक्ष पदार्थों के सेवन से प्रकुपित पित्त [ बस्ति को प्राप्त कर ] बात से संयुक्त हो जाता है तो लिंग के अग्रभाग, बस्ति, गुदा, इन स्थानो में जलन उत्पन्न करता हुआ गरम [ पीला लाल व रक्त सहित ] मूत्र बार २ निकलता है । इसे उष्णवात रोग कहते हैं ॥ ४९ ॥
पित्तज मूत्रोपसाद लक्षण. विविधपीतकरक्तमिहोष्णवदहुलशुष्कमथापि च रोचना- । सदृशम्त्रमिदं बहुपित्ततः स च भवेदुपसादगदो नृणाम् ॥ ५० ॥
भावार्थ:--पित्त के अत्याधिक प्रकोपसे नाना प्रकार के वर्णयक्त व पलिा, लाल गरम पेशाब अधिक आता है। यदि वह सूख जावें तो, गोरोचना के सदृश मालूम होता है । इस रोग को मूत्रोपसाद कहते हैं ॥ ५० ॥
कफज सूत्रोपसाद लक्षण. बहलपिच्छिलशीतलगौरवत् । स्रवति कृच्छ्रत एव जलं चिरात् । कुमुदशंखशशांकसमप्रभं कफकृतस्सभवेदुपसादकृत् ॥ ५१ ॥
भावार्थ:-कफ के प्रकोप से, जिस में गाढा पिच्छिल (लिवलिवाहट),ठण्डा, सफेद वर्ण से युक्त पेशाब देर से व अत्यंत कष्ट से निकलता है और वह सूख जाने पर उस का वर्ण कमलपुष्प, शंख व चंद्रमा के सदृश हो जाता है, उसे कफज मूत्रोपसाद रोग कहते हैं ॥ ५१ ॥
मूत्ररोग निदानका उपसंहार. इति यथाक्रमतो गुणसंख्याया, निगदिताः सजलोद्भवदुर्गदाः ॥ अथ तदौषधमार्गमतः परं, परहितार्थपरं रचयाम्यहम् ।। ५२ ॥
भावार्थ:-इस प्रकार मूत्र से उत्पन्न होनेवाले दुष्टरोगों को उन के भेद सहित यथाक्रम से वर्णन किया। अब दूसरों के हितकी दृष्टि से उन के योग्य औषधि व चिकित्साविधि को प्रतिपादन करेंगे ॥ ५२ ॥
___ अथ मूत्ररोगचिकित्सा. विधिवदत्र विधाय विरेचन, प्रकटितोत्तरवस्तिरपीष्यते । अधिकमैथुनता रुधिरं स्त्रवेत्, यदि ततो विधिमस्य च बृंहणम् ॥५३॥
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