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विषरोगाधिकारः ।
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से पहिले विष (प्रभ्रम वेग में ) रक्त को दूषित कर रक्त को काला कर देता है [ जिस से शरीर काला पड जाता है और शरीर में चींटियों के चलने जैसा मालूम होता है ] द्वितीयवेग में विष मांस को दूषित करता है [ जिस से शरीर अत्यधिक काला पड जाता है शरीर पर सूजन गांठें हो जाती हैं ] तीसरे वेग में ( विष मेद को दूषित करता है जिस से ) आंखो में अत्यधिक भारीपना व शिर में दर्द होता है। चौथे वेग में
कोष्ठ [ उदर ] को प्राप्त हो कर कफ को गिराता है अर्थात् मुंहसे कफ निकलने लगता ( और संधियों में पीड़ा होती है ) पांचवें वेग में विष के प्रभाव से प्रकुपित कफ स्रोतों को अवरोध कर के भयंकर हिचकी को उत्पन्न करता है । छठे वेग में अत्यंत दाह (जलन) हृदयपीडा होती हैं और वह व्यक्ति मूर्छित हो जाता है। सातवें वेग में विष प्राण का नाश करता है अर्थात् उसे मार डालता है ॥ ९३ ॥ ९४ ॥ ९५ ॥ मंडली सर्पविषजन्य सप्तवेगों के लक्षण.
तद्वच्च मण्डविषेऽपि विषप्रदुष्टं रक्तं भवेत्प्रथमवेगत एव पीतम् । मांस सपीतनयनाननपाण्डुरत्वमापादयेत्कटुकवक्त्रमपि द्वितीये ।। ९६ ॥ तृष्णा तृतीयविषवेगकृता चतुर्थे तीव्रज्वरो विदितपंचमतो विदाहः । स्यात्पष्टसप्तमविषाधिक वेगयोरप्युक्तक्रमात्स्मृतिविनाशयुतामुमोक्षः ||९७||
भावार्थ:— मंडली सर्प के उसने पर, उस विष के प्रथमवेग में विष के द्वारा रक्त दूषित होकर पीला पड जाता है । द्वितीयवेग में विष मांस को दूषित करता है जिससे आंख, मुख आदि सर्व शरीर पांडुर वा अत्यधिक काला हो जाता है । मुंह कडवा भी होता है । तृतीयवेग में अधिक प्यास, चतुर्थवेग में तीव्रज्वर व पांचवें वेग में अत्यंत दाह होता है । षष्ट वेग में हृदयपीडा व मूर्च्छा होती है । सप्तमवेग में प्राण का मोक्षण होता है ॥ ९६ ॥ ९७ ॥
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राजीमंतसर्पविषजन्य सप्तवेगों का लक्षण. राजीमतामपि विषं प्रथमोरुवंगे । रक्तं प्रदूष्य कुरुतेऽरुणपिच्छिलाभं ॥ मांस द्वितीयविषवंगत एव पाण्डे । लालासृतिं सुबहुलामपि तत्तृतीये ॥ ९८ ॥ मन्यास्थिरत्वशिरसोतिरुजां चतुर्थे । वा संगमाशु कुरुतेऽधिकपंचमेऽस्मिन् ॥
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