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विषरोगाधिकारः।
(५२५)
अथ विंशः परिच्छेदः
मंगलाचरण. वीरजिनावसानवृषभादिजिनानभिवंद्य । घोरसंसारमहार्णवोत्तरणकारणधर्मपथोपदेशकान् ॥ सारतरान् समस्तविषमामयकारणलक्षणाश्रयै- ।
भूरिचिकित्सितानि सहकर्मगणैः कथयाम्यशेषतः ॥ १ ॥ भावार्थ:-घोर संसाररूपी महान् समुद्र को तारने के लिये कारणभूत, धर्म मार्गका उपदेश देनेवाले, श्रेष्ठ व पूज्य वृषभादि महावीर पर्यंत तीर्थंकरों की वंदना कर समस्त विषम रोगों के कारण, लक्षण, अधिष्ठान व [ रोगों को जीतने के लिये ] अनेक प्रकार के सम्पूर्ण चिकित्साविधानों को, उन के सहायभूत छेदन भेदन आदि कर्मो ( क्रिया ) के साथ २ इस प्रकरण में वर्णन करेंगे, ऐसी आचार्य प्रतिज्ञा करते
सप्त धातुओंकी उत्पत्ति. आहृतसान्नपानरसतो रुधिरं, रुधिराच मांसम-। स्मादपि मांसतो भवति मेद, इतोऽस्थि ततोऽपि ॥ मज्जातः शुभशुक्रमित्यभिहिता, इह सप्तविधाश्वधातवः ।
सोष्णसुशीतभूतवशतश्च विशेषितदोषसंभवाः॥ २ ॥ भावार्थः- मनुष्य जो अन्नपानादिक का ग्रहण करता है वह ( पचकर ) रस रूप में परिणत होता है। उस रससे रुविर, रुधिर [ रक्त ] से मांस, मांस से मेद, मेदसे अस्थि, अस्थिं से मज्जा, मज्जा से वीर्य [ शुक्र ] इस प्रकार सप्त धातुवों की उत्पत्ति होती है । और वे सात धातु उष्ण व शीत स्वभाव वाले भूतों की सहायता से विशिष्ट वातादि दोषों से उत्पन्न होने वाले होते हैं। अर्थात् धातुओं की निष्पत्तिमें भूत व दोष भी मुख्य सहायककारण हैं ॥ २ ॥
रोग के कारण लक्षणाधिष्ठान. पाधिकारणान्यनिलपित्तकफासगशेषतोभिघा- । तक्रमतोऽभिघातराहितानि पंच सुलक्षणान्यपि ॥
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