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कल्याणकारके
जन्यव्रण को ) शस्त्र से विदारण कर सर्पके विष के समान महामंत्र व तंत्रप्रयोग से साधन करना चाहिये ॥ १४७ ॥
अंतिम कथन. इति जिनवक्त्रनिर्गतमुशास्त्रमहांबुनिधेः। सकलपदार्थविस्तृततरंगकुलाकुलतः ॥ उभयभवार्थसाधनतटद्वयभामुरतो ।
निस्तमिदं हि शीकरनिभं जगदेकहितम् ॥ १४८ ॥ भावार्थ:-जिसमें संपूर्ण द्रव्य, तत्व व पदार्थरूपी तरंग उठ रहे हैं, इह लोक परलोकके लिये प्रयोजनीभूत साधनरूपी जिसके दो सुंदर तट हैं, ऐसे श्रीजिनेंद्रके मुखसे उत्पन्न शास्त्रसमुद्रसे निकली हुई बूंदके समान यह शास्त्र है । साथमें जगतका एक मात्र हितसाधक है [ इसलिये इसका नाम कल्याणकारक है ] ॥ १४८ ॥
इत्युग्रादित्याचार्यविरचिते कल्याणकारके चिकित्साधिकारे
सर्वविषचिकित्सितं नाम एकोनविंशः परिच्छेदः ।
इत्युग्रादित्याचार्यकृत कल्याणकारक ग्रंथ के चिकित्साधिकार में विद्यावाचस्पतीत्युपाधिविभूषित वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री द्वारा लिखित भावार्थदीपिका टीका में समस्त विषचिकित्सा नामक
उन्नीसवां परिच्छेद समाप्त हुआ।
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