________________
कल्याणकारके
सर्पजविषोंसे दोषों का प्रकोप. भोगिनः पवनकोपकरास्ते पित्तमुक्तबहुमण्डलिनस्ते । जीवराजितशरीरयुताश्लेष्माणमुग्रमधिकं जनयति ॥ ९० ॥
भावार्थः-दर्वीकर सर्प का विष वात प्रकोपकारक है। मंडली सर्प का विष पित्त को कुपित करनेवाला है तो राजीमंतसर्प का विष कफ को क्षुभित करता है ॥९०॥ .
वैकरंज के विष से दोषप्रकोप व दीकर दष्टलक्षण. यद्वयव्यतिकरोद्भवसस्तेि द्विदोषगणकोपकरास्ते । वातकोपजनिताखिलचिन्हास्संभवंति फणिदष्टविषेऽस्मिन् ॥ ९१ ॥
भावार्थ:-दो जाति के सर्प के सम्बंध से उत्पन्न होनेवाले वैकरंजनाम के सर्प का विष दो दोषों का प्रकोप करनेवाला है। दर्वीकर सर्प से डसे हुए मनुष्य के शरीर में बातप्रकोप से होनेवाले सभी लक्षण प्रकट होते हैं ॥ ९१ ॥
मंडलीराजीमंतदष्टलक्षण. पित्तजानि बहुमण्डलिदष्टे लक्षणानि कफजान्यपि राजी-। मद्विषपकाटितानि विदित्वा शोधयेत्तदुचितौषधमंत्रैः ॥ ९२ ॥
भावार्थ:-मंडली सर्प के काटनेपर पित्तप्रकोप से उत्पन्न दाह आदि सभी लक्षण प्रकट होते हैं। राजीमंत सर्प के काटने पर कफप्रकोप के लक्षण प्रकट होते हैं । उपरोक्त लक्षणों से यह जानकर कि इसे कौनसे सर्प ने काट खाया है, उन के उचित औषध व मत्रों से उस विष को दूर करें ॥ ९२ ॥
दकिरविषज सप्तवेग का लक्षण. दर्वीकरोगाविषवेगकृतान्विकारान् वक्ष्यामहे प्रवरलक्षणलक्षितास्तान् । भादौ विष रुधिरमाशु विदृष्य रक्तं कृष्णं करोति पिशितं च तथा द्वितीय ९३ चक्षुर्गुरुत्वमधिकं शिरसो रुजा च तद्वत्तीयविषवेगकृतो विकारः। कोष्ठं प्रपद्य विषमाशु कफप्रसेकं कुर्याच्चतुर्थविषमविशेषितस्तु ॥ ९४ ॥
स्रोतः पिधाय कफ एव च पंचमेऽस्मिन् वेगे करोति कुपितः स्वयम्सग्रहिक्का । : षष्टे विदाहहृदयग्रहमूर्छनानि प्रागैर्विमोक्षयति सप्तमवेगजातः ।। ९५ ॥
भावार्थः -- दर्वीकर सर्प के उग्रविष से जो विकार उत्पन्न होते हैं उन का उन के विशिष्ट लक्षणों के साथ वर्णन करेंगे । दर्वीकर [ फणवाला ] सर्प के काटने पर सब
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org