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( ५१८ )
कल्याणकारके
रक्त नहीं निकलें, ठंडे पानी ( शरीरपर ) छिडकने पर भी रोमांच [ रोंगटे खडे ] न हो, कफ से उत्पन्न बत्ती मुंह से हमेशा निकलें, ऊपर [ मुंह नाक, कान आदि ] व नीचे ( गुदा शिश्न ) के मार्गसे रक्त निकलता रहे, और निद्रा का नाश हो, ऐसे सर्पदष्ट रोगी को एक दफे विधिप्रकार विदारण करके पश्चात् छोड देवें अर्थात् चिकित्सा न करें ॥ १३१ ॥
अस्मादूर्ध्वं द्विपादमबलतरचतुःपादषट्पादपाद - । व्याकीर्णापादकीटप्रभवबहुविषध्वंसनायौषधानि ॥ दोष त्रैविध्यमार्गप्रविदितविधिनासाध्यसाध्यक्रमेण । प्रव्यक्तं प्रोक्तमेतत्पुरुजिनमतमाश्रित्य वक्ष्यामि साक्षात् ॥ १३२ ॥ भावार्थ:- - अब यहां से आगे द्विपाद, चतुष्पाद, षट्पाद व अनेक पाद [ पैर ] बाले प्राणि व कीटों से उत्पन्न अनेक प्रकार के विषों को नाश करने के लिये तीन दोषों के अनुसार योग्य औषध का प्रतिपादन भगवान् आदिनाथ के मतानुसार आचार्यांने स्पष्टरूप से किया है उसी के अनुसार हम ( उग्रादिचार्य ) भी वर्ण करेंगे ॥ १३२ ॥
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मर्त्याश्च श्वापदानां दशननख मुखैर्दारिताप्रक्षतेषु । प्रोद्य तृष्णासृगुद्यच्छ्रयथुयुतमहा वेदना व्याकुलेषु || बात श्लेष्मोत्थतीव्रप्रबळ विषयुतेषद्वतोन्माद युक्तान् । मर्त्यानन्यानथान्ये परुषतररुषामानुषांस्ते दर्शति ॥ १३३ ॥
भावार्थ:- जिन मनुष्यों को किसी जंगली क्रूर जानवरने काट खाया या नखप्रहार किया जिस से बडे भारी घाव होगया हो, जिसे तृष्णा का उद्रेक, तीव्र रक्तस्राव, शोफ आदिक महापीडायें होती हो, वात व कफ से उत्पन्न तीव्र विषवेदना हो रही हो ऐसे मनुष्य दूसरे उन्माद से युक्त मनुष्योंको बहुत भयंकर क्रोध के साथ काट स्वाते हैं ॥ १३३ ॥
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हिंस्रक प्राणिजन्य विषका असाध्यलक्षण.
व्यालैर्दष्टाः कदाचित्तदनुगुणयुताश्चारुचेष्टा यदि स्युः । तावादर्शदीपातपजलगत बिंबान्प्रपश्यंति ये च ॥ शद्धस्पर्शावलोकादधिकतरजलत्रासतो नित्रसंति । प्रस्पष्टादष्टदेहानपि परिहरतां दृष्टरिष्टान्विशिष्टान् ॥ १३४ ॥
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