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बालग्रहभूत तंत्राधिकारः ।
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[सिकुडन] होता है । पित्त के प्रकोप से ४. ज्वर, ५. दाह, ६. खून का आना और ७ अतिसार [ दस्त का लगना ] होता है । कफ के प्रकोप से ८. अरुचि ९. का १० गले में जखम और ११. शिर में भारीपना होता है । इन उपरोक्त ग्यारह लक्षसे अथवा किसी पांच या छह लक्षणों से पीडित क्षयरोगी को यश को चाहने वाला er छोड देवें अर्थात् ऐसा होने पर रोग असाध्य हो जाता है ॥ १० ॥ ११ ॥
राजयक्ष्मा असाध्यलक्षण.
बहुतरमशनं यः क्षीयमाणोऽतिर्भुक्ते । चरणजठरगुह्योद्भूतशोफोऽतिसारी । यमरवरनारी कौतुकासक्तचित्तो । व्रजति स निरपेक्षः क्षिप्रमेव क्षयार्तः ॥ १२ ॥
भावार्थं जो रोगी अत्यंत क्षीण होते जानेपर भी बहुतसा भोजन करता है ( अथवा बहुत ज्यादा खानेपर भी, क्षीण ही होता जाता है) और पाद, जठर (पेट) व गुप्तेद्रियमें शोफ जिसे हुआ है, अतिसारते पीडित हैं, समझना चाहिये वह यमके द्वारा अपहरण की हुई सुंदर स्त्रियोंमे आसक्त चित्तवाला और इस लोकसे निरपेक्ष होकर वहां जल्दी पहुंच जाता हैं ॥ १२ ॥
राजयक्ष्माकी चिकित्सा.
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अभिहित सविशेषैर्बृहणद्रव्यसिद्धै- । रसमुदितघृतवगैः स्निग्धदेहं क्षयति । मृदुतरगुणयुक्तैः छर्दनैः सद्विरेकै- । रपि मृदुशिरसस्संशोधनैश्शोधयेत्तम् ॥ १३ ॥
भावार्थ- पूर्व में कथित बृंहण (बलदायक ) द्रव्योंसे सिद्ध घृतसे क्षयरोगीके शरीर को स्निग्ध करना चाहिये । पश्चात् मृदुगुणयुक्त औषधियोंसे मृदुछर्दन, रोगका शिर भारी हो तो मृदुशिरोविरेचन करना चाहिये व मृदुविरेचन भी करना चाहिये ॥ १३ ॥ राजयक्ष्मीको भोजन
मधुरगुणविशेषाशेषशालीन्यवान्वा । बहुविधकृत भक्षालक्ष्यगोधूमसिद्धान् । घृतगुडबहुदुग्वै भोजयेन्मुद्रयूपैः । फलगणयुतमृरिष्टश कैस्सुपुष्टः ॥ १४ ॥
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