________________
विषरोगाधिकारः ।
(४९९)
भावार्थ:-विष के तृतीय वेग में नस्य, अंअन व अगद का पान कराना चाहिये। चतुर्थ विषवेग में समस्त अगद घृतहीन करके प्रयोग करना चाहिये ॥ ६० ॥
पंचमषटवेगचिकित्सा. पंचमे मधुरभेषजनिषान्वितागदमथापि च षष्टे । योजयेत्तदतिसारचिकित्सां नस्यमजनमतिप्रबलं च ॥ ६१ ॥
भावार्थ:--विषके पंचमवेग में मधुर औषधियोंसे बने हुए काथ के साथ अगद प्रयोग करना चाहिये। और छठे विषवेग में अतिसाररोगकी चिकित्सा के सदृश चिकित्सा करें और प्रबल नस्य अंजन आदि का प्रयोग करें ॥ ६१॥
. सप्तमवेगचिकित्सा. तीक्ष्णमंजनमथाप्यवपीडं कारयोच्छिरसि काकपदं वा। सप्तमे विषकृताधिकवेगे निर्विषीकरणमन्यदशेषम् ॥ ६३ ॥
भावार्थ:-विष के सप्तमवेग में तीक्ष्ण अंजन व अवडिननस्य का प्रयोग करना चाहिये । एवं शिर में काकपद ( कौवेके पादके समान शस्त्र से चीरना चाहिये ) का प्रयोग और भी विष दूर करनेवाले समस्त्र प्रयोगों को करना चाहिये ॥ ६२॥
गरहारी घृत. सारिबाग्निककटुत्रिकपाठापाटलीककिणिहीसहरिद्रापीलुकामृतलतासशिरीषैः पाचितं घृतमरं गरहारी ॥ ६३ ॥
भावार्थ:-सारिवा, चित्रक, त्रिकटु, ( सोंठ मिर्च पीपल ) पाठा, पाढल, चिरचिरा, हलदी, पालुवृक्ष, अमृतबेल, शिरीष इनके द्वारा पकाया हुआ घृत समरत प्रकार के विषोंको नाश करता है ।। ६३ ॥
उपविषारीघृत. कुष्ठचंदनहरेणुहरिद्रादेवदारुबृहतीद्वयमंजि-। ष्ठापियंगुसविडंगसुनीलीसारिवातगरपूतिकरंजैः ॥ ६४ ॥ पकसपिरखिलोग्रविषारि तं निपव्य जयतीह विषाणि । पाननस्यनयनांजनलेपान्योजययेघृतवरेण नराणाम् ।। ६५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org