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कल्याणकारके भावार्थ:---जो प्राणी बहुत विचित्रा शरीरवाले हैं जिनको बहुतसे पाद हैं वे स्पर्श मुखसंदंश, वायु व गुदस्थान में विषसहित हैं । कणभ [प्राणिविशेष ] जलौंक के मुखसंदंश में तीवविष रहता है ७३ ॥
... अस्थिपित्तविष. कंटका बहुविषाहतदुष्टसर्पजाश्च वरकीबहुमत्स्या-। स्थीनि तानि कथितानि विषाण्येषां च पित्तमपि तीवविषं स्यात् ॥ ७४ ॥
भावार्थ:-कंटक [ कांटे ] विष से मरे हुए की हड्डी, दुष्टसर्प, वरकी आदि अनेक प्रकार की मछली, इन की हड्डी में विष होता है। अर्थात् ये अस्थिविष हैं। बरकी आदि मत्स्यों के पित्त भी तीव्र विषसंयुक्त है ॥ ७४ ॥
शूकशवविष. मक्षिकास्समशका भ्रमराद्याः शूकसंनिहिततीव्रविषास्ते । यान्यचित्यबहुकीटशरीराण्येव तानि शवरूपविषाणि ॥ ७५॥
भावार्थ:-मक्खी, मच्छर, भ्रमर आदि शूक [ कडा विषैला बाल ] विषसे युक्त रहते हैं। और भी बहुतसे प्रकार के अचिंत्य सूक्ष्म विषैले कीडे रहते हैं [जो अनेक प्रकार के होते हैं ] उनका मृत शरीर विषमय रहता है । उसे शवविष कहते हैं ॥ ७५ ॥
जंगमविषमें दशगुण. जंगमेष्वपि विषेषु विशेषप्रोक्तलक्षणगुणा दशभेदाः । 'संत्यधोऽखिलशरीरजदोषान् कोपयंत्यधिकसर्वविषाणि ॥ ७६ ॥
भावार्थ:-स्थावर विषोंके सदृश जंगम विषमें भी, वे दस गुण होते हैं। जिन के लक्षण व गुण आदिका [ स्थावर विषप्रकरण में ] वर्णन कर चुके है। इसलिये सर्व जंगमविष शरीरस्थ सर्वदोष व धातुओंको प्रकुपित करता है ॥ ७६ ॥
पांच प्रकार के सर्प तत्र जंगमविषेष्वतितीवा सर्पजातिरिह पंचविधोऽसौ । भोगिमोऽथ बहुमण्डलिनो रानीविराजितशरीरयुताश्च ॥ ७७ ॥ तत्र ये व्यतिकरप्रभवास्ते वैकरंजनिजनामविशेषाः । निर्विषाः शुकशशिप्रतिमामास्तोयतत्समय जाजगराद्याः ।। ७८ ।।
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