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कल्याणकारके
भावार्थ:-कूठ, चंदन, रेणुका हलदी, देवदारु, छोटी बडी कटेहरी, मंजीठ, फूलप्रियंगु, वायविडंग, नीलीवृक्ष, सारिवा, तगर, दुर्गंधकरंज, इनसे पका हुआ घृत समस्त उग्र विषोंको नाश करनेके लिये समर्थ है। [ इसलिये इसका नाम उपविषारि रखा है ] इसे सेवन करनेवाला समस्त विषोंको जीतता है । एवं विषपीडित मनुष्योंको इस उत्तम घृत से पान, नस्य, अंजन लेपनादिकी योजना करनी चाहिये ॥ ६४ ॥६५॥
दूधीविषारिअगद. पिप्पलीमधुककुंकुमकुष्ठध्यामकस्तगरलाध्रसमांसी-। चंदनोरुरुचकामृतवल्येलास्सुचूर्ण्य सितगव्यघृताभ्याम् ॥ ६६ ॥ मिश्रितौषधसमूहमिमं संभक्ष्य मंक्षु शमयत्यतिदूषी-। दुर्विषं विषमदाहषातीव्रज्वरप्रभृतिसर्वविकारान् ॥ ६७ ॥
भावार्थ:-पीपल, मुलैठी, कुंकुम [ केशर ] कूठ, ध्यामक [ गंधद्रव्य विशेष ] तगर, लोध, जटामांसी, चंदन, सज्जखिार, गिलोय, छोटी इलायची, इनको अच्छीतरह चूर्णकर शकर व गाय के घृतके साथ मिलावें, उसे यदि खावे तो दूषीविष, विषमदाह, तृषा, तीव्रज्वर आदि समस्त दूषीविषजन्य विकार शांत होते हैं ।। ६६॥ ६७ ॥
इति स्थावरविषवर्णन.
अथ जंगमविषवर्णन.
जंगमविष के षोडशभेद. जंगमाख्यविषपप्यतिघोरं प्रोच्यते तदनु षोडशभेदम् । दृष्टिनिश्वसिततीक्ष्णसुदंशालालमूत्रमलशुक्रनखानि ॥ ६८ ॥ वातपित्तगुदभागनिजास्थिस्पर्शदंशमुखशूकशवानि । पोडशप्रकटितानि विषाणि प्राणिनाममुहराण्यशुभानि ।। ६९ ॥
भावार्थ:-अब अत्यंत भयंकर जंगम ( प्राणिसम्बधी) विष का वर्णन करेंगे। इस विष के ( प्राणियों के शरीर में ) सोलह अधिष्ठान [ आधारस्थान ] हैं । इसलिये इसका भेद भी सोलह हैं । दृष्टि [ आंख ] निश्वास, डाढ, लाल [ लार ] मूत्र, मल
१ सित इति पाठांतरं।
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