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कल्याणकारके
रससारविष, धातुविष, कंदविष, इस प्रकार यह विष दस प्रकार का है, अर्थात् उपरोक्त मूल आदि [वनस्पति व पार्थिव, ] दश प्रकार के अवयबो में विष रहता है ।। २९ ॥
मूलपत्रफलपुष्पावेषवर्णन.
अथ कृतकारकाश्ववरमारकगुंजलता - । प्रभृतिविषं भवेदमलमूलत एव सदा || विषदलिका करंभसहितानि च पत्रविषं । कनकसतुंबिकादिफलपत्रसुपुष्पविषं ॥ ३० ॥
भावार्थः -- कृतक, अरक, अश्वमार [ कमेर ] गुंजा [ घुंघची ] आदि के जड में विष रहता है । अतः इसे मूलविप कहते हैं । विषदलिका ( विषपत्रिका ) करंभ आदि के पत्रों विष रहता है । इसलिये वे पत्रविष कहलाते हैं । कनक ( धत्तूर ) तुम्बिका ( कडची लौकी) आदि के फल, पत्ते व फूल में विष रहता है । इसलिये फलविष आदि कहलाते हैं ॥ ३० ॥
सारनिय सत्यधातुविपवर्णन.
विषमिह सारनिर्यसनचर्म च चिल्लेतरोदिनकरतिवस्तुहिगणोऽधिक दुग्धविषं ॥ जलहरितालगंधक शिलाघुरुधातुविषं । पृथगथ वक्ष्यते तदनु कंदविषं विषमम् ॥ ३१ ॥
भावार्थ:- चिल्ल वृक्ष के सारनिर्यास ( गोंद ) व छाल, सार, निर्यास, त्वग्विष कहलाते हैं । अकौवा, लोध, थूहर की सब जाति ये दुग्वविष हैं, अर्थात् इनके दूधमें विष है । जल, हरताल, गंधक, मैनसिल, संखिया आदि ये धातुविष हैं अर्थात् खानसे निकलनेवाले पार्थिव विष हैं । अब उपर्युक्त विषोंसे उत्पन्न पृथक् २ लक्षण कह कर पश्चात् कंदविष का वर्णन करेंगे ॥ ३१ ॥
रहता
१ कृतक आदि जिन के दूसरे पर्याय शब्द टीका में न लिख कर वैसे ही उद्धृत किये गये हैं ऐसे विषों के पर्याय आदि किसी कोष में भी नहीं मिलता । यह भी पता नहीं कि यह कहां मिल सकता है । इन्हें व्यवहार में क्या कहते हैं । इसीलिये बडे २ टीकाकारोंने भी यह लिखा है कि
परैरापे ज्ञातुमशक्यत्वात् तत्र तानि हिमवत्प्रदेशे किरात
मूलादिविषाणां शबरादिभ्यो ज्ञेयानि
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२ बिल्ल इति पाठांतरं
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