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कल्याणकारके
भावार्थ:-सर्षपक विषसे अनेक प्रकारके वातविकार होते हैं। और पेटका अफराना, शूल व पिटक ( फुन्सी) उत्पन्न होते हैं तथा आंख, मल, मूत्रा पीले हो जाते हैं। गर्दनका बिलकुल स्तंभ होता है अर्थात् इधर उधर हिल नहीं सकता है ।।४०॥
मूलकपुंडरीकविषजन्यलक्षण. मूलकेन वमनाधिकहिका गात्रपोक्षविषमेक्षणता स्यात् । रक्तलोचनमहोदरता तत् पुण्डरीकविषमातिविषेण ॥ ४१ ॥
भावार्थ:-----मूलक विषसे अत्यंत वमन, हिचकी, शरीर की शिथिलता व आखों की विषमता होजाती है। पुंडरीक विषसे आंखे लाल होजाती हैं । और उदर फूल [ आध्मान ] जाता है ॥ ४१ ।।
महाविषसांभाविषजन्यलक्षण. ग्रंथिजन्महृदयेप्यतिशूलं संभवेदिह महाविषदोषात् । संभयात्र बहुसादनजंघोरूदराद्यधिकशोफविवृद्धिः ॥ ४२ ॥
भावार्थ:-महाविष के दोष से ग्रंथि [गांठ] व हृदय में अत्यंत शूल उत्पन्न होता है। संभा [ श्रृंगी ] नामक विष से शरीर ढीला पड जाता है और जंघा[ जांघ ] उरू, उदर, आदि स्थानो में अत्यधिक शोफ उत्पन्न होता है ॥ ४२ ॥
स्तंभितातिगुरुकंपितगात्रो मुस्तया हततनुर्मनुजस्स्यात् । भ्रामतः श्वसिति मुह्यति ना हालाहलेन विगताखिलचेष्टैः ।। ४३ ॥
भावार्थ:-मुस्तकविषसे मनुष्यका शरीर स्तब्ध, भारी व कंप से युक्त होता है। हालाहल विषसे मनुष्य एकदम भ्रमयुक्त होते हुए व श्वाससे युक्त और मूछित होता है । उसकी सर्व चेष्टायें बंद होजाती हैं ॥ ४२-४३ ॥
पालकवैराटविषजन्यलक्षण. दुर्बलात्मगलरुद्धमरुद्वाक्संगवानिह भवेदिति पालाकेन तद्वदतिदुःखतनुर्वैराटकेन हृतविद्व लदृष्टिः ॥ ४४ ॥
भावार्थ:--पालाक विषके योग से एकदम दुर्बल होजाता है । उस का गला, श्वास, व वचन सब के सब रुक जाते हैं । एवं च चैराटक नामक विष से रोगी के शरीर में अत्यंत पीड़ा होती है । एकदम उसकी दृष्टि विह्वल होजाती है ॥ ४४ ॥
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