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विषरोगाधिकारः।
( ४९०)
भावार्थः—मनुष्य नीति, विनय आदि सच्चरित्रोंसे युक्त होते हुए भी मद्य के मद से उसकी मानसिकविचारशक्ति नष्ट होकर वह इधर उधर [पागलों के सदृश फिजूल घूमता है । हेयाय विचाररहित होकर सर्व प्रकार के वचनोंको बोलता है । बडबड करता है । यह कार्य है यह अकार्य है इत्यादि भेदज्ञान उसके हृदयमें न होनेसे अकार्यकार्य को भी कर डालता है । स्वसृ ( मामी ) पुत्री व माता के साथ में भी कामांव होकर भोगता है । पवित्रा और अपवित्र पदार्थीको विवेकशून्य होकर खा लेता है ॥ २६ ॥
अतएव यह मद्यपान अत्यंत पाप व विकारको उत्पन्न करनेवाला है। एवं अनेक भयंकर रोगोंके उत्पन्न होनेके लिये एक मुख्य आधारभूत है । एवं यह मनुष्यको हलका बना देता है। इसलिये उत्तम धर्मात्मा पुरुषोंने उस मद्यपानको दोनों भवके कल्याणकी सामग्रियोंको घातन करनेका निमित्त व अत्यंत अनर्थकारी समझकर उसे छोड दिया है । वह सर्वदा हेय है ॥ २७ ॥
विष का तीन भेद. इति कथितेषु तेषु विषमेषु मयागमतः । पृथगवगृह्य लक्षणगुणैस्सह विधीयते ॥ त्रिविधविकल्पितं वनजजंगमकृत्रिमतः ।
सफलमिहोपसंहृतवचोभिरशेषहितं ॥ २८ ॥ भावार्थः-इसप्रकार कथन किये हुए विषमविषों का आगम के अनुसार पृथक् पृथक रूप से लक्षण व गुणों के कथनपूर्वक निरूपण किया जायगा। वह विष वनज ( स्थावर ) जंगम व कृत्रिम भेद से तीन प्रकार से विभक्त है। उन सब को बहुत संक्षेत्र के साथ सबके हितकी वांछा से कहेंगे ॥ २८ ॥
दशविवस्थावरविष. . स्थिरविषमत्र तदशविधं भवतीति मतं । सुविमलमूलपल्लवसुपुष्पफलपकरैः ।। त्वगपि च दुग्धनियसनतद्रुमसारवरै-।
रधिकसुधातुभिर्वहुविधोक्तमुकंदगणः ॥ २९ ॥ भावार्थ:-बनज ( स्थावर ) विष दसग्रकार के होते हैं । मूलग [ जड ] विष, पत्राविष, पुष्पविष, फलविष, त्वम् [छाल] विष, दुग्धविष, वृक्षनिर्यास (गोंद) विष
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