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बालग्रहभूततंत्राधिकारः।
(४७६)
भावार्थ:-देवगण प्रायः पौर्णमासी के रोज, असुर व उन के परिवार दोनों संध्या के समय में, गंधर्व व उन के परिवार अष्टमी के दिन, यक्षगण प्रतिपदा के रोज पितृभूत कृष्णपक्ष में, राक्षस रात्री में पिशाच भी रात्रि में एवं नागग्रह पंचमी के रोज भ्रमण करते हैं एवं मनुष्योंको कष्ट देते हैं। इन ग्रहों को पूर्वोक्त प्रकार के सर्व लक्षणों से अच्छीतरह जान कर सत्य, दया, दमादिगुणोंसे युक्त, सर्वज्ञ व उनके द्वारा प्रतिपादित धर्म में अत्यधिक श्रद्धालु वैद्य, उनमें से साध्य ग्रहोंको उनके योग्य मंत्र या प्रभावशाली औषध आदिसे दूर करें, ये ग्रह अत्यंत क्रूर एवं कष्ट से जाते जाते हैं इसी प्रकार बालग्रह भी कष्ट साध्य कहा गया है ॥ १२७॥ १२८ ॥
शरीर में ग्रहोंके प्रभुत्व. ग्रहामयात्यद्भुतदिव्यरूपा नानाविशेषाकृतिवेषभूताः। मनुष्यदेहाभिविशंत्यचिंत्याः कोपात्स्वशक्त्याप्यधिकुर्वते ते ॥ १२९ ॥
भावार्थः-ग्रहामय को उत्पन्न करने वाले ग्रह, आश्चर्यकारक दिव्यरूप को धारण करनेवाले अनेक प्रकार की विशिष्ट आकृति व वेष से संयुक्त एवं अचिंत्य होते हैं । अत एव ग्रहोत्पन्न रोग भी इसी प्रकार के होते हैं। वे.क्रोध से मानव शरीर में प्रविष्ट होते हैं और 'आत्मशक्तिके बल से शरीर में अपना अधिकार जमा लेते है ॥ १२९ ॥
___ ग्रहामय चिकित्सा. तान्साधयेदुग्रतपोविशेषैर्ध्यानैस्समंत्रौषधसिद्धयांगैः । तेषामसंख्यातमहाग्रहाणां शात्यर्थमित्थं कथयति संतः ॥ १३० ॥
भावार्थ:- उन महाग्रहोंकी पीडा को उग्रतप, ध्यान, मंत्र, औषध या सिद योग के द्वारा जीतनी चाहिये । असंख्यात प्रकार के महाग्रहों के उपद्रवों की शांति के लिये इसी प्रकारके उपायों को काम में लेना चाहिये ऐसा सज्जन पुरुष कहते हैं ॥१३०॥
प्रहामय में मंत्रबलिदानादि. यमनियमदमोद्यत्सत्यशौचाधिवासो । भिषगधिकसुमंत्रैमत्रितात्मा स्वमंत्रीः ॥ अपि बहुविधभूषाशेषरत्नानुलेप- । सृगमलबलिधूपैः साधयेत्तान् ग्रहाख्यान् ॥ १३१ ।।
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