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बालग्रहभूत तंत्राधिकारः ।
अथाष्टदशः परिच्छेदः
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मंगलाचरण.
मम मनसि जिनेंद्र श्रीपदां भोजयुग्मं । भवतु विभवभव्याशेषमत्तालिदै - ॥ रनुदिनमनुरक्तैस्सेव्यमानं प्रतीत - त्रिभुवन सुखसंपत्प्रातिहेतुर्नराणाम् ॥ १ ॥
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भावार्थ:- श्री जिनेंद्र भगवान में आसक्त [ अत्यंत श्रद्धा रखनेवाले ] वैभवयुक्त सम्पूर्ण भव्यरूपी मदोन्मत्त भ्रमरसमूह जिसको प्रतिदिन सेवता है और जो तीनों लोक में स्थित, प्रसिद्ध सम्पूर्ण सुखसंपत्तिके प्राप्ति के कारण है ऐसे श्री जिनेंद्र भगवान के दिव्य चरणकमलयुगल मेरे मन [ हृदय ] में हमेशा विराजता रहें ॥ १ ॥
अथ राजयक्ष्माधिकारः । राजयक्ष्मवर्णनप्रतिज्ञा.
अखिलतनुगताशेषामयैकाधिवासं । प्रबलविषमशोषव्याधितत्वं ब्रवीमि || निजगुणरचितस्तदपभेदाभेदैः । प्रथमतरसुरूपैरात्मरूपैस्मुरिष्टैः ॥ २ ॥
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भावार्थः – जो सर्व शररिंगत रोगोंको आश्रय भूत है ( अर्थात् जिसके होनेपर अनेक वास कास आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं ) ऐसे प्रबल विषमशोष [ क्षय ] रोग के स्वरूप को उनके स्वभाव से उत्पन्न उन दोषों के भेदोपभेद, पूर्वरूप, लक्षण व अरिष्टों के साथ २ कथन करेंगे ॥ २ ॥
+ गंभीरामलमूलसंघतिलके श्रीकुंदकुंदान्वये । गच्छे श्रीपन सोर्गवल्यनुगते देशीगणे पुस्तके ॥ विख्यातागमचक्षुषोल्ललितकीर्त्याचार्यवर्यस्य ते । कुर्वेहं परिचर्यकं चरणयोस्सिहांसन श्रीजुषो ॥ इति क पुस्तके अधिकः पाठोपलभ्यते ।
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