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(४०)
कल्याणकारके
अथ गुल्मरोगाधिकारः ।
गुल्म निदानअथ पृथङ्किखलैः पवनादिभिर्भवति गुल्मरुगग्रतरो नृणाम् । रुधिरजो वनितासु च पंचमो विदितगर्भगताखिल लक्षणः ॥ ८४ ।।
भावार्थः-वात, पित, कफ सन्निपात एवं स्त्रियोंके रज के विकार से, पांच प्रकार ( वातिक, पैत्तिक, श्लैष्मिक सान्निपातिक, रक्तज ) के भयंकर गुल्मरोग उत्पन्न होते हैं, जिनमें आदि के गुल्म स्त्री-पुरुष दोनों को ही होते हैं । लेकिन् रक्तज गुल्म स्त्रियोंमें होता है पुरुषोंमें नहीं । दोषज गुल्मों में तत्तदोषों के लक्षण पाये जाते हैं । सन्निपातिक में त्रिदोषों के लक्षण प्रकट होते हैं । रक्तजे गुल्म में पैत्तिक लक्षण मिलते हैं । औरोंकी अपेक्षा इसमें इतनी विशेषता होता है कि इसमें गर्भ के सभी लक्षण [ जैसे मुंह से पानी छूटना, मुखमंडल पाला पड जाना, रतन का अग्रभाग काला हो जाना आदि ] प्रकट होते हैं। लेकिन गर्भ में तो, हाथ पैर आदि प्रत्येक अवयव शूलरहित फडकता है । यह पिंडरूप में दर्द के साथ फडकता है । गर्भ और गुल्म में इतना ही अंतर है ॥ ८४ ॥
गुल्म चिकित्सा. अधिकृताखिलदोषनिवारणौ- । षधवरैः सुविरिक्तशरीरिणाम् । अपि निरूहगणैरनुवासनैः प्रशमयेद्बुधिपि च पित्तवत् ॥ ८५ ॥
भावार्थ:--गुल्म रोगमें अपछी तरह विरेचन कराकर बातादिक दोषोके उद्रेकको पहिचानकर उन दोषोंके उपशामक औषधियोंका प्रयोग करना चाहिये तथा निरूहण बंरित भी देनी चाहिये । रक्तविकारज गुल्म रोगमे पित्तज गुल्म के समान चिकित्सा करनी चाहिये ॥ ८५ ॥
गुल्म में भोजन भक्षणादि. अखिलभोजनभक्षणपानका- । न्यनिलरोगिषु यानि हितानि च ।
अधिकगुल्मिषु तापनबंधना- । न्यनुदिनं विदधीत विधानवित् ।। ८६॥
१ गुल्मका सामान्य लक्षण-हृदय व मूत्राशय के बीच के प्रदेश में चंचल (इधर उधर फिरनेवाला) वा निश्चल, कभी २ घटने बढने वाला गोलग्रंथि [ गांठ ] उत्पन्न होता है इसे गुल्म कहते हैं।
२ यह रोग पुराना होनेसे सुखसाध्य होता है इस की चिकित्सा दस महीने बीत जाने के बाद करनी चाहिये ।।
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