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क्षुद्ररोगाधिकारः ।
( ४३१ )
भावार्थः – जो भोजन, भक्षण पानक आदि वातिक रोगियों के लिये हितकर हैं उन सब को गुल्मरोग से पीडित रोगी को भोजनादि कार्यों में देना चाहिये एवं चिकित्सा विधान को जानने वाला वैद्य प्रतिदिन स्वेदन बंधन आदि प्रयोगों को प्रयुक्त करें || ८६ ॥
गुल्मनाशक प्रयोग. अनिलरोगहरैलवणैस्तथादरिषु च प्रतिपादितसर्पिषा ।
उपचरेदिह गुल्मविकारिणां, मलविलोडनवतिभिरप्यलम् ॥ ८७ ॥ भावार्थ : – गुल्मरोग वातविकारको दूर करने वाले लवणों से एवं उदर रोग में कहे हुए वृतसे चिकित्सा करनी चाहिये । तथा मलको नाश करनेवाली वर्त [ बत्ति ] यों के प्रयोग से भी उपचार करना चाहिये ॥ ८७ ॥
गुल्मन्नयोगांतर.
तिलजसर्षपतैलसुभृष्टप-, लवगणान् नृपपूतिकरंजयाः । लवणकांजिकया सह भक्षयेदरगुल्मविलोडनसत्पटून् ॥८८॥ भावार्थ: - आरग्बध व पूतिकरंजे के कोंपल पत्तों को तिलके तेल व सरसों के तेल के साथ भूजकर उसे नमकीन कांजी के साथ खिलाना चाहिये । वह गुल्मरोगको नाश करने के लिये समर्थ हैं ॥ ८८ ॥
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विशिष्ट प्रयोग
मलनिरोधनतः पयसा यवोदनमथाप्यसकृद्बहु भोजयेत् । अतिविपक्व सुमाषचयानुलखलविघृष्ट विशिष्टघृताप्लुतान् ॥ ८९ ॥
भावार्थ:-- यदि इस रोग में मलनिरोध होजाय तो जौका अन्न दूध के साथ बार २ खिलाना चाहिये । अच्छी तरह पके हुए उडद को उलूखल [ ओखनी ] में घर्षण [ रगड ] कर के उत्तम घी में भिगोकर खिलाना चाहिये ॥ ८९ ॥ गुल्म में अपथ्य.
बहुविधालुकमूलकमांसवैदल विशुष्कविरूक्षणशाकमी- ।
जनगणान् मधुराणि फलान्यलं परिहरेदिह गुल्मविकारवान् ॥ ९० ॥
भावार्थ:-- गुल्मरोग से पीडित मनुष्य बहुत प्रकार के रतालु, पिंडालु आदि आलु, मूली, द्विदल [ मूंग मसूर आदि ] धान्य, सूखा व रूक्ष शाक व इन से संयुक्त भोजन समूहों को एवं मीठे फलों (केला जादि ] को नहीं खावें ॥ ९० ॥
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