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(४२२)
कल्याणकारके
KARAN
अथ मूत्रकृच्छ्राधिकारः । इति च मूत्रकृतामयलक्षण प्रतिविधानमिह प्रतिपादितम् । अथ तदष्टविधाधिकघातलक्षणचिकित्सितमत्र निरूप्यते ॥ ५८॥
भावार्थ:-इस प्रकार मूत्रसंबंधी [ मूत्राघात ] रोग के लक्षण व चिकित्सा का प्रतिपादन किया है । अब यहां से मूत्र रोगातंर्गत, अन्य आठ प्रकार के मूत्राघात [ मूत्राकृछ् ] रोगों का लक्षण और चिकित्सा का वर्णन करेंगे ॥ ५९॥
आठ प्रकार मूत्रकृछ्र. अनिलपित्तकफैराखलैः पृथक् । तदभिघातवशाच्छकृताथवा । प्रबलशर्करयाप्यधिकाश्मरीगणीनपीडितमूत्रमिहाष्टधा ॥ ५९ ॥
भावार्थ:-वात, पित्त, कफ व सन्निपात से, चोट आदि लगने से, मल के विकार से, शर्करा व अश्मरीसे [ वातज, पित्तज, कफज, सन्निपातज, अभिघातज, शकृज, शर्कराज, अश्मरीज ] इस प्रकार अष्टविध, मूत्रकृच्छू रोग उत्पन्न होते हैं ॥ ५९॥
अष्टविध मूत्र कृच्छ्रोंक्के पृथक् लक्षण. तदनु दोषगुणैरिह मेहन । प्रवरशल्यजक पवनामयैः । अधिकशूलयुतोदरपूरणः । मलनिरोधजमश्मरिकोदिता ॥६०॥ कथितशर्करयाप्युदितक्रमात् । हृदयपीडनवेपथुशूलदु-॥ . बलतराग्निनिपातविमोहनैः । सृजति मूत्रमिहाहतमारुतात् ॥६१॥
भावार्थ:--वातादि दोषज मूत्रकृच्छ्र में तत्तदोषों के लक्षण व सन्निपातज में तीनों दोषों के लक्षण प्रकट होते हैं । मूत्रवाहि स्रोतों पर शस्त्रसे घाव हो जाने से, अथवा अन्य किसी से चोट पहुंचने से जो मूत्रकृच्छ्र उत्पन्न होता है उस में वातज
१ यहां घात शब्द का अर्थ आचार्यों ने कृच्छ्र [ कष्ट से निकलना ] किया है !}.
२ वातज मूत्रकृच्छ्र—जिसमें वंक्षण ( राङ) मूत्राशय, लिंग स्थानों में तीन पीडा होकर वारंवार थोडा २ मूत्र उतरता है उसे वातज मूत्रकृच्छ्र कहते हैं ।
पैत्तिक मूत्रकृच्छ्र–इस में पीडायुक्त जलन के साथ पीला, लाल मूत्र वारंवार कष्टसे उतरता है।
कफन मूत्रकृच्छ्र ---इस में लिंग और मूत्राशय भारी व सूजनयुक्त होते हैं और चिकना मूत्र आता है।
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